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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २८१
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जैनमुनि वस्त्र-पात्रादि बहुत ही सीमित और संयमोपयोगी रखता है। उ. यशोविजयजी कहते हैं बाह्य परिग्रह के साथ-साथ अन्तरंग परिग्रह का त्याग करना भी जरुरी है “यदि अन्तरंग परिग्रह से मन व्याकुल है, तो फिर बाह्य निर्ग्रन्थत्व व्यर्थ है। मात्र कांचली छोड़ देने से सर्प विषरहित नहीं हो जाता है।" मिथ्यात्व, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, और वेद- ये अन्तरंग परिग्रह के चौदह भेद हैं।
अतः इनका भी त्याग करना आवश्यक है। अपरिग्रह महाव्रत की भी पाँच भावनाएँ बताई गई हैं१. मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दों में राग-द्वेष नहीं करना।
मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूप में राग-द्वेष नहीं करना। मनोज्ञ-अमनोज्ञ गन्ध में राग-द्वेष नहीं करना।
मनोज्ञ-अमनोज्ञ रस में राग-द्वेष नहीं करना। ५. मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्श में राग-द्वेष नहीं करना।
पंचमहाव्रत की पच्चीस भावनाएँ हैं। महाव्रतरूपी रत्नों की रक्षा के लिए भावनारूपी ये पाँच-पाँच पहरेदार खड़े कर दिए गए हैं। अगर ये पहरेदार सावधान हैं, तो महाव्रतरूपी रत्नों को कोई चुरा नहीं सकता है। २. अष्टप्रवचनमाता :- पाँच समितियों और तीन गुप्तियों को उत्तराध्ययन में अष्टप्रवचनमाता कहा है। आत्मा के अनन्त आध्यात्मिक सद्गुणों को विकसित करने वाली ये प्रवचनमाताएँ हैं। इन आठों में सारा प्रवचन समा जाता है। समितियों और गुप्तियों के अभाव में महाव्रत सुरक्षित नहीं रह सकते हैं।
समिति पाँच प्रकार की होती है१. ईर्यासमिति - इर्या का अर्थ है- गमन। गमन विषयक सम्यक्
प्रवृत्ति ईर्यासमिति है। युगपरिमाण, अर्थात् चार हाथ परिमाण भूमि को एकाग्रचित्त से देखते हुए यतनापूर्वक गमनागमन करना ईर्यासमिति है। भाषासमिति - क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, वाचालता और विकथा- इन आठ दोषों से रहित आवश्यकता होने पर
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