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२९०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
४. अतिमात्रा में भोजन तथा गरिष्ठ भोजन का वर्जन ५. स्त्री, पशु आदि से संसक्त शय्यासन का वर्जन
इन पाँच प्रकार की भावनाओं से ब्रह्मचर्य विशुद्ध होता है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- "बाह्यदृष्टि वाले को स्त्री अमृतमय लगती है, किन्तु आत्मरमण करने वाले तत्त्वज्ञ को स्त्री प्रत्यक्ष मल-मूत्र की खान दिखाई देती है।"
ब्रह्मचर्य साधना का मेरुदण्ड है। श्रमण और श्रावक-दोनों के लिए ब्रह्मचर्य की साधना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हैं।
___ पंचम व्रत जीवनपर्यंत के लिए सर्वपरिग्रह विरमण (अपरिग्रह महाव्रत) - परिग्रह वृत्ति एक ऐसा जहरीला कीटाणु है, जो धर्मरूपी तथा सद्गुणरूपी कल्पवृक्ष को नष्ट कर देता है। परिग्रहवृत्ति सभी पापों की जननी है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- "परिग्रह का त्याग करने से साधु का पापरूपी मैल क्षण में ही नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार पाल टूटने से तालाब का पानी चला जाता है।"
प्रश्नव्याकरणसूत्र के टीकाकार ने परिग्रह की व्याख्या करते हुए लिखा है-जो सम्पूर्ण रूप से ग्रहण करता है, वह परिग्रह, अर्थात् जो मूर्छाबुद्धि से ग्रहण करता है, वह परिग्रह है। मुनि संयमसाधना हेतु कुछ धार्मिक उपकरण (चौदह उपकरण) रखता है, किन्तु उन पर उनकी ममत्वबुद्धि नहीं होती है, इसलिए वह परिग्रह नहीं है।
उ. यशोविजयजी कहते हैं- "अप्रमत्त साधु ज्ञानरूपी दीपक से युक्त होता है। जिस प्रकार पवनरहित स्थान से दीपक को स्थिरता प्राप्त होती है, उसी प्रकार धर्म के उपकारक उपकरणों द्वारा निष्परिग्रहता को स्थिरता प्राप्त होती है।" जैसे दीपक के लिए तेल रूपी आहार आवश्यक है, वैसे ही निर्वातस्थानरूपी धर्मउपकरण भी साधुता का आधार हैं।
जैन साधु का एक नाम निर्ग्रन्थ है। आचार्य हरिभद्र ने निर्ग्रन्थ का अर्थ किया है- गाँठ से रहित। “निर्गतो ग्रन्थान निर्गन्थः", जिसके परिग्रहरूपी गाँठ नहीं है, वही निर्ग्रन्थ है।
__ अपरिग्रह महाव्रत के चौवन भंग होते हैं। अल्प-बहु, अणु-स्थूल, सचित्त और अचित्त-इन छ: प्रकार के परिग्रह को मुनि मन से, वचन से, काया से न ग्रहण करे, न कराए, न अनुमोदन करे। इस प्रकार मन के अठारह भंग, वचन के अठारह और काया के अठारह- कुल चौवन विकल्प (भंग) होते हैं।
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