________________
उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २७६
चतुर्थ महाव्रत जीवनपर्यन्त के लिए सर्वमैथुन विरमण (ब्रह्मचर्य महाव्रत)समस्त व्रत, नियम, तप, शील, विनय, सत्य, संयम आदि का मूल आधार ब्रह्मचर्य है। यह सभी व्रतों में सर्वश्रेष्ठ है।
उ. यशोविजयजी कहते हैं- “नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य रूप अमृतकुंड की निष्ठा के सामर्थ्य से तथा प्रयत्नपूर्वक क्षमा की साधना करते हुए महामुनि नागलोक के स्वामी की तरह सुशोभित होते हैं।"
___ 'ब्रह्म' शब्द के मुख्यरूप से तीन अर्थ हैं- वीर्य, आत्मा और विद्या। 'चर्य' शब्द के भी तीन अर्थ हैं- रक्षण, रमण तथा अध्ययन इस तरह ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ वीर्य-रक्षण, आत्म-रमण और विधाध्ययना
जैनागमों में ब्रह्मचर्य की गम्भीर एवं अतिसूक्ष्म विवेचना उपलब्ध है। मन-वचन-काया से देव, मनुष्य और तिर्यन्च शरीर सम्बन्धी सभी प्रकार के मैथुन कृत, कारित और अनुमोदित का जीवन भर का त्यागी होता है। इस प्रकार मन के नौ, वचन के नौ, और काया के नौ- ऐसे कुल सत्ताईस विकल्प होते है।
ब्रह्मचर्य वह खाद है, जिससे सद्गुणों की खेती लहलहाने लगती है। ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए सतत जागरूकता अपेक्षित है। भावनाओं के चिन्तन का आत्मा पर गहरा असर होता है। आचारांग ४६८, समावायांग ४६६, आवश्यक चूर्णि ५००, आचारांग चूर्णि ५०१, तत्त्वार्थसूत्र ५०२ की राजवार्तिकटीका में पाँच भावनाओं का उल्लेख है१.
स्त्रीकथा का वर्जन . २. स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों के अवलोकन का वर्जन
पूर्वानुभूत कामक्रीड़ा की स्मृति का निषेध
४६७
५८.
४६
नवब्रह्मसुधोकुण्डनिष्ठाऽधिष्ठायको मुनिः नागलोकेशवद्भाति, क्षमां रक्षन् प्रयत्नतः ।।४।। -सर्वसमृद्धि-२०, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी आचारांग -२, ७८६-७८७ समवायांग, २५ आवश्यकचूर्णि -प्रतिक्रमण अध्ययन पृ. १४३-४७ आचारांगचूर्णि, पृ. २८० तत्त्वार्थराजवार्तिक ७-७, पृ. ५३६
५००
५००.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org