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२७६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
पंचमहाव्रतों में प्रथम महाव्रत है- जीवनपर्यन्त के लिए सर्वप्राणातिपात विरमण (अहिंसा महाव्रत)-पंचमहाव्रतधारी श्रमणों को अहिंसा महाव्रत नवकोटि से धारण किया हुआ होता है। अहिंसा महाव्रत के लिए 'सव्वाओं, पाणाइवायाओ विरमणं' शब्द का प्रयोग हुआ है। दशवकालिक में अहिंसा महाव्रत का विश्लेषण करते हुए कहा गया है कि श्रमण सचित्त-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति किसी का भी स्पर्श न करे तथा पृथ्वीकाय आदि पाँच स्थावरों तथा द्वीन्द्रिय, त्रीइन्द्रिय, चतुरिन्द्रय और पंचेन्द्रिय- ये नौ प्रकार के संसारी जीव हैं, उनकी मन से, वचन से और काया से हिंसा नहीं करना, नहीं करवाना और न अनुमोदन करना। ४८४ इस प्रकार मन के २७, वचन के २७ और काया के २७ कुल मिलाकर ८१ विकल्प होते हैं।
मनि के हृदय में संसार के सभी जीवों के प्रति निरंतर अनुकंपा का भाव रहता है। उनके उठने, बैठने, चलने, सोने, बोलने आदि से कोई स्थूल या सूक्ष्म जीवों की विराधना हो जाती है, तो उसके लिए ईरियावही करके पश्चातापपूर्वक क्षमायाचना कर लेता है। ऐसे अप्रमत्त साधु को कोई अपवाद के प्रसंग पर नदी उतरना या कीचड़ में चलना आदि अनिवार्य हो जाता है, तो भी उसे अप्रमत्तता के कारण हिंसा का दोष नहीं लगता है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- “अप्रमत्त साधुओं को हिंसा भी अहिंसा के अनुबंध वाली होती है, क्योंकि हिंसा के अनुबंध का विच्छेद होने से उनके गुणों का उत्कर्ष होता है।" ४८५ आचारांग, समवायांग ८६, प्रश्नव्याकरण आदि ग्रन्थों में पंचमहाव्रत की पच्चीस भावनाओं का वर्णन आता है। अहिंसा महाव्रत की पाँच भावनाएँ इस प्रकार है।
गमनागमन सम्बन्धी सावधानी या इर्यासमिति मनसमिति वचनसमिति एषणासमिति आदाननिक्षेपणसमिति
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दशवैकालिक साधूनामप्रमत्तानां सा चाहिंसानुबंधिनी। हिंसानुबंधविच्छेदाद्- गुणोत्कर्षों यतस्ततः ।।५।। - अध्यात्मसार, सम्यक्त्व अधिकार, उ. यशोविजयजी आचारांग, द्वितीयश्रुतस्कंध, तृतीय चूला समवायांग, २५
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