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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २७५ एकाग्रचित्त हो जाते हैं।"८२ उ. यशोविजयजी ने मुनि की संयम में एकाग्रता को दो दृष्टांत देकर समझाया है। प्रथम दृष्टांत में बताया है कि जिस प्रकार राजा की आज्ञा के अनुसार मृत्यु से डरता हुआ, व्यक्ति तेल से सम्पूर्ण भरे हुए पात्र को हाथ में लेकर पूरे नगर में घूमता है, किन्तु एक बूंद भी भूमि पर नहीं गिरने देता है; उसी प्रकार मुनि आत्मगुणों के घात होने के भय से डरते हुए संसार में अप्रमत्तभाव से संयम में एकाग्रचित्त होकर रहते हैं। मुनिजीवन के आचार अत्यधिक कठोर होते हैं। यहाँ हम उ. यशोविजयजी के ग्रन्थों के आधार पर तथा आगमों के आधार पर मुनिजीवन के क्रियायोग की साधनाविधि प्रस्तुत कर रहे हैं। यहाँ हम श्रमणाचार के निम्नांकित पहलुओं पर प्रकाश डालेगे पंचमहाव्रत एवं उनकी पच्चीस भावनाएँ पाँच समितियाँ तथा तीन गुप्तियां (अष्टप्रवचन माता) बारह भावनाएँ दस समाचारी दस श्रमणधर्म बारह प्रकार के तप ७. बाईस परिषह पंचमहाव्रत एवं उनकी भावनाएँ - पंचमहाव्रत का पालन साधु-जीवन की प्रथम शर्त है। उ. यशोविजयजी कहते हैं कि अहिंसा मोक्षरूपी वृक्ष का बीज है। वह मुख्य है तथा सत्य आदि व्रत मोक्षरूपी वृक्ष के पत्ते हैं।०८२ इन पाँच महाव्रतों के क्रम को एवं महत्त्व को समझने के लिए वृक्ष का दृष्टांत बहुत उपयोगी है। पत्ते और शाखाओं आदि के बिना वृक्ष परिपूर्ण नहीं बनता है। दूसरी ओर बीज के बिना पत्ते आदि उत्पन्न नहीं हो सकते हैं। जैनधर्म में अंहिसा और सत्य की जितनी सूक्ष्म विचारणा प्रस्तुत की गई है, उतनी शायद ही अन्य किसी धर्म में की गई हो। ४८२. तैलपात्रधरो यद्वद्राधावेधोद्यतो यथा। क्रियास्वनन्यचित्तः स्याद् भवभीतस्तथा मुनिः ।।६।। -भवोद्वेग -२२, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी ४८३. अपवर्गतरोबर्बीजं, मुख्याऽहिंसेयमुच्यते। सत्यादीनि व्रतान्यत्र जायन्ते पल्लवा नवाः ।।४५।। -सम्यक्त्व अधिकार, अध्यात्मसार-उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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