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२७४/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
सामान्यतः प्रतिमा का अर्थ प्रतिज्ञा विशेष होता है।४८ प्रतिमा मे स्थित श्रावक श्रमण के समान व्रतों का पालन करता है। जैन अर्धमागधी आगम-साहित्य में समवायांगसूत्र और श्रुतस्कन्ध में तथा दिगम्बर ग्रन्थ कषायपाहुड की जयधवलटीका में एवं अनेक श्रावकाचारों में भी ग्याहर प्रतिमाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। उपासकदशांगसूत्र में भी एक से ग्यारह तक प्रतिमाओं के ग्रहण करने का संकेत है। इन ग्यारह प्रतिमाओं के नाम इस प्रकार हैं
१. दर्शन २. व्रत ३. सामायिक ४. पौषध ५. नियम ६. ब्रह्मचर्य ७. सचित्तत्याग ८. आरम्भत्याग ६. परिग्रहत्याग १०. उद्दिष्टभक्तत्याग
११. श्रमणभूतप्रतिमा व्रतधारी श्रावक में व्रतों में दोष व अतिचार लगने की संभावना होती है, किंतु प्रतिमाधारी श्रावक में दोष व अतिचार की संभावना नहीं होती है। उ. यशोविजयजी के ग्रन्थों में श्रावकाचार का विस्तृत उल्लेख नहीं मिलता है। मात्र यत्र-तत्र कुछ संकेत उपलब्ध होते हैं। उनकी दृष्टि में क्रियायोग का पूर्णतः विकास श्रमणाचार में दृष्टिगोचर होता है। अतः अब हम श्रमणाचार का संक्षिप्त वर्णन करेंगे। श्रमणाचार:
श्रमण संस्कृति आचार प्रधान है। आचार ही मुनि-जीवन की मूलभूत आत्मा है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- "जिस प्रकार तेल के पात्र को धारण करने वाला या राधावेध साधने के लिए तत्पर बना व्यक्ति अपनी क्रिया में जिस प्रकार एकाग्रचित्त हो जाता हैं, उसी प्रकार संसार से भय प्राप्त साधु चारित्रक्रिया में पूर्ण
'. १/७१ युवाचार्य श्री मधुकर मुनि, ब्यावर।
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