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२७२/ साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
शिक्षाव्रत :
अणुव्रत और गुणवत जीवन में एक ही बार ग्रहण किए जाते हैं, किन्तु शिक्षाव्रत बार-बार ग्रहण किए जाते हैं। ये व्रत कुछ समय के लिए ही होते हैं।
शिक्षाव्रत चार प्रकार के हैं
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१.
अतिरिक्त शेष समस्त पापपूर्ण प्रवृत्तियों का त्याग करना अनर्थदण्डविरमणव्रत है। जिन प्रवृत्तियों से किसी प्रकार का लाभ नहीं हो, वे सारे अनर्थदण्ड हैं।
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सामायिकत आर्त- रौद्र ध्यान का तथा पापमय कार्यों का त्याग करके एक मुहुर्त्त पर्यन्त समभाव में रहना सामायिक है। इस व्रत से समग्र जीवन को समभाव से युक्त बनाने का अभ्यास किया जाता है।
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उ. यशोविजयजी समत्वभाव को ही सामायिक बताते हुए कहते है कि समत्वभाव के बिना की जाने वाली तथा ममत्व को फैलाने वाली सामायिक को मैं मायावी मानता हूँ। शुद्धनय के अनुसार सद्गुणों का लाभ हो, तो ही सामायिक शुद्ध होती है।
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समभाव के निरन्तर अभ्यास से समता के संस्कार अंतःकरण में दृढ़ हो जाते हैं, जिससे गृहस्थजीवन में किसी भी प्रकार की समस्या, जो व्यक्ति की मानसिक शान्ति को भंग करे, उत्पन्न नहीं होती है।
देशावकासिकव्रत आवश्यक सूत्र की वृत्ति में यह स्पष्ट है कि देशावकासिक व्रत में दिव्रत में किए हुए परिमाण को दिन, रात्रि, घड़ी, मुहूर्त्त, प्रहर आदि काल तक के लिए अधिक संक्षिप्त कर लिया जाता है। उपलक्षण से अन्य अणुव्रतों को भी संक्षेप में किया जाता है। प्राचीन आचार्यों ने इस संदर्भ में
विना समत्वं प्रसरन्ममत्त्वं सामायिकं मायिकमेवमन्ये ।
आये समानो सति सद्गुणानां शुद्धं हि तच्छुद्धनया विदन्ति । १८ ।। अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी
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