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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / २७१ इन पाँचों अणुव्रत के अलावा रात्रिभोजनत्याग को छठवां अणुव्रत मानकर इसे कईं आचार्यों ने वर्णित किया है। इन अणुव्रतों के पालन से एक ओर क्रियाभाग पुष्ट होता है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक व्यवस्था को श्रेष्ठ बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान मिलता है। इन अणुव्रतों को उन्नत बनाने के लिए गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों का भी विधान किया गया है। गुणव्रत : आचार्य अमृतचन्द्र का कहना है कि जैसे परकोटे नगर की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार शीलव्रत (गुणव्रत ओर शिक्षाव्रत ) अणुव्रतों की रक्षा करते हैं । ४७५ संख्या की दृष्टि से गुणव्रत तीन और शिक्षाव्रत चार माने गए हैं। उपासकदशांगसूत्र में गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों को संयुक्त रूप से सात शिक्षाव्रत कहा गया है।' ४७६ ४७५ ४७६ • गुणव्रत के तीन प्रकार 9. ३. दिशापरिमाणव्रत - इस व्रत में छहों दिशाओं में गमनागमन की मर्यादा कर ली जाती है। निश्चित की गई सीमा से बाहर कुछ भी अर्थमूलक या भोगमूलक प्रवृत्ति नहीं की जा सकती है। भोगोपभोगपरिमाणव्रत (उपभोग - परिभोग व्रत ) इस व्रत में एक ही बार काम में आने योग्य भोज्यपदार्थ आदि की तथा पुनः पुनः भोजन योग्य वस्त्रादि पदार्थों की मर्यादा की जाती है। यह भोगोपभोगपरिमाणव्रत मूलव्रत परिग्रह परिमाण की पुष्टि के लिए आवश्यक है। दोनों का उद्देश्य जीवन की अमर्यादित आवश्यकताओं को नियंत्रित करना है। Jain Education International अनर्थदण्डविरमणव्रत स्वयं के लिए या अपने परिवार के व्यक्तियों के जीवन-निर्वाह के लिए अनिवार्य सावद्यप्रवृत्तियों के मुर्च्छाच्छन्निधियां सर्वं जगदेव परिग्रहः । मूर्च्छया रहितानां तु, जगदेवाऽपरिग्रहः ।।८।। - परिग्रहत्या - २५, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी उपासकदशांग, १/१२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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