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________________ २७०/ साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री ५. स्थूल परिग्रहपरिमाणव्रत : तृष्णा और लालसा को सीमित करने और व्याकुलता से बचने के लिए सचित्त, अचित्त एवं मिश्र परिग्रह की सीमा निर्धारित कर लेना स्थूल परिग्रह परिमाणव्रत कहलाता है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- “ यह परिग्रहरूपी ग्रह सभी ग्रहों से बलवान् है, जो राशि से पीछे नहीं हटता, अपनी वक्रता कभी नहीं छोड़ता और जिसने तीनों जगत् को विडम्बित कर रखा है, परेशान कर रखा है।" आगे उ. यशोविजयजी परिग्रह त्याग की महिमा बताते हुए कहते हैं कि जो बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह को तृण के समान छोड़कर उदासीन रहता है, उसके चरण कमल को तीनों जगत् पूजते हैं। ' ,४७२ स्थानांग सूत्र में परिग्रह के तीन प्रकार माने गए हैं ४७३ १. कर्मपरिग्रह २. शरीरपरिग्रह ३. वस्तुपरिग्रह उपासकदशांगसूत्र में अपरिग्रह को इच्छापरिमाणव्रत कहा है और इसके सात भेद किए हैं- सोना, चाँदी, चतुष्पद, खेत, वस्तु, गाड़ी, वाहन। ४७४ तत्त्वार्थसूत्र में नौ प्रकार के परिग्रह बताए गए हैं- क्षेत्र, वास्तु, सोना, चाँदी, धन, धान्य, दासी, दास, (द्विपद, चतुष्पद) कुप्य आदि - इन नौ प्रकार के परिग्रहों में से अपने लिए आवश्यक वस्तु की मार्यादा करके शेष समस्त वस्तुओं के संग्रह का त्याग करना ही परिग्रहपरिमाणव्रत है। उ. यशोविजयजी ने कहा है- "मूर्च्छायुक्त व्यक्ति के लिए सारा संसार परिग्रह है और मूर्च्छा से रहित व्यक्तियों के लिए संसार अपरिग्रहरूप है। " इस व्रत को ग्रहण करने से जीवन में सादगी, मितव्ययता और शान्ति अनुभव होती है। ४७२ ४७३ ४७४ न परावर्तते राशेर्वक्रतां जातुनोज्झति । परिग्रहग्रहः कोऽयं विडम्बितजगत्त्रयः।। यस्त्यक्त्वा तृणवद्वाद्यमाभ्यन्तरं च परिग्रहम् । उदास्ते तत्पदाम्भोजं, पर्युपास्ते जगत्त्रयी । । ३ । । - परिग्रहत्या-२५, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी स्थानांगसूत्र ३/१/११३, उपासकदशांग १/२१ से २७ तत्वार्थ सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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