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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २६६ क्रियायोग में क्रमशः प्रगति करने वाले श्रावक को इन सभी अतिचारों से बचकर सम्यक् प्रकार से सत्याणुव्रत का पालन करना चाहिए। अस्तेयाणुव्रत -
इसे स्थूल अदत्तादान विरमणव्रत भी कहते हैं। राजदण्डनीय चोरी नहीं करना, अर्थात् जिसके करने से समाज में चोर, बेईमान, तस्कर कहलाते हैं, वह स्थूल अदत्तादान है। इस व्रत का पालन करते हुए भी प्रमाद या असावधानी से लगने वाले दोष या अतिचार निम्न पाँच प्रकार के होते हैं
__ स्तेनाहृत - चोरी की वस्तु खरीदना।
तस्कर प्रयोग - चोरी के कार्य में सहयोग देना। विरुद्धराज्यातिक्रम - असंवैधानिक व्यापार आदि करना। कूटतुला-कूटमाप - कम अधिक तौल माप करना।
तत्प्रतिरूपक व्यवहार - मिलावट करके वस्तु बेचना। ४. स्वदारसन्तोषव्रत :
परस्त्रीगमन नहीं करना और स्वस्त्रीगमन में भी मर्यादायुक्त मैथुन सेवन करना स्वदारसंतोषव्रत है। इस व्रत के मुख्यरूप से पाँच अतिचार हैं
इत्वरिक परिगृहितागमन - अर्थात् अल्पकाल के लिए किसी स्त्री का ग्रहण उसके साथ मैथुनसेवन या वैश्यावृत्ति। अपरिगृहीतागमन - अविवाहित स्त्री के साथ मैथुनसेवन। अनंग क्रीड़ा - प्रकृति-विरूद्ध मैथुनसेवन। परविवाहकरण। कामभोगतीव्राभिलाषा।४७१
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उपासकदशांगसूत्र १/४३ उपासकदशांग १/६, अभयदेववृत्ति, पृ. १३
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