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२६८/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
२. सत्याणुव्रत -
जिस असत्य से किसी को हानि पहुँचती हो, किसी की प्रतिष्ठा को धक्का लगता हो और जो लोकनिन्दित है- ऐसे असत्य वचन का प्रयोग मन-वचन तथा काया से नहीं करना तथा न करवाना- यह स्थूलमृषावाद विरमणव्रत या सत्याणुव्रत कहलाता है।
उपासकदशांग में स्थूल असत्य के पाँच प्रकार बताए गए हैं। १. कन्या के संबंध में - उपलक्षण से सम्पूर्ण मानवजाति के लिए क्रोध,
अभिमान, लोभ, स्वार्थ और कपट आदि से असत्य भाषण करना, चिन्तन करना और शरीर से चेष्टा करना कन्यालीक है। २. गाय के संबंध में - उपलक्षण से सम्पूर्ण पशुजाति के सम्बन्ध में
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से असत्य बोलना गवालीक है।। ३. भूमि के सम्बन्ध में - स्वार्थ-लोभ आदि के वश में होकर द्रव्य,
क्षेत्र, काल, भाव आदि से भूमि के सम्बन्ध में असत्य बोलना
भूमि-अलीक है। ४. धरोहर के सम्बन्ध में असत्य बोलना। ५. झूठी साक्षी देना।
श्रावक इन स्थूल मृषावाद का पूर्णरूप से त्याग करता है। उपासकदशांगसूत्र ६६ में प्रस्तुत व्रत के पाँच अतिचार बताए हैं१. सहसाऽभ्याख्यान - सत्यासत्य का निर्णय किए बिना कषाय से
उत्प्रेरित होकर किसी पर दोषारोपण करना। रहस्याभ्याख्यान - किसी की गुप्त बात प्रकट करना। स्वदारमन्त्रभेद - पति-पत्नी का एक-दूसरे की गुप्त बातों का किसी अन्य के सामने प्रकट करना। मिथ्योपदेश - असत्य मार्ग का उपदेश देना। कूटलेखप्रक्रिया- झूठे दस्तावेज, जाली लेख आदि तैयार करना।
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४६६. उपासकदशांगसूत्र १/४२
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