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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २६७
आदि एकेन्द्रिय जीवों से लेकर मानव तक के प्रीति अहिंसक आचरण की भावना जैन-परम्परा की प्रमुख विशेषता है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- "किसी भी जीव की हिंसा नहीं करना।" इसे आचार के मूल तत्त्वरूप में सूत्रों में प्रतिपादित किया गया है। तत्त्वों पर श्रद्धा ही सम्यक्त्व है। ६६
____ अतः जीव को तत्त्व की ओर मोड़ने के लिए अहिंसा प्रथम सीढ़ी है। श्रावक के अहिंसाव्रत में दो आगार (अपवाद) हैं- प्रथम अपराधी को दण्ड देने की और दूसरा जीवन-निर्वाह के लिए सूक्ष्म हिंसा की।
प्राचीन जैनआचार्यों ने हिंसा-अहिंसा का रहस्य समझाने के लिए हिंसा के चार भेद किए हैं
१. संकल्पजा २. आरम्भजा ३. उद्योगिनी ४. विरोधिनी।
इन चार हिंसाओं में से संकल्पजा हिंसा का जीव पूर्ण रूप से त्याग करता है। शेष तीन हिंसाओं का वह चाहते हुए भी सर्वथा त्याग नहीं कर पाता है, सिर्फ मर्यादा कर सकता है।
आचार्य हेमचंद्र ने कहा है कि लंगड़ा, लूला, कुष्ठरोगी आदि शरीरों की प्राप्ति- ये सब हिंसा के फल हैं। इस प्रकार जानकर बुद्धिमान जीवों को निरपराधी त्रस जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा करने का त्याग करना चाहिए। ६०
इसे स्थलप्राणातिपात विरमण-व्रत भी कहते हैं, जिसे श्रावक मन-वचन काया से करना नहीं और कराना नहीं- इस प्रकार छः प्रकार से ले सकता है।
इस व्रत के पाँच अतिचार है १. बंध २. वध ३. छविच्छेद ४. अतिभार और ५. भक्तपानविच्छेद।०६८ - अहिंसा के उपासक श्रावक को इन अतिचारों से बचना चाहिए।
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४६६. तत्त्वश्रद्धानमेतच्च गदितं जिनशासने।
सर्वेनीवा न हन्तव्याः सूत्रे तत्त्वभिष्यते।।६। सम्यक्त्व अधिकार, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी पंगुकुष्टिकुणित्वादि दृष्धा हिंसाफलं सुधीः। निरागस्त्रसजेतूनां हिंसा संकल्पतस्त्यजेत् ।।१६।। -योगशास्त्र, २, आ. हेमचन्द्र (अ) उपासकदशांग, सूत्र ४१ (ब) बन्ध-वधच्देदातिभारारोपणान्नपान निरोधाः- तत्त्वार्थसूत्र ७/२५
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