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२६६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
गृहस्थ हो या साधु-दोनों की श्रद्धा एक जैसी हो सकती है, किन्तु चारित्र (क्रिया विधि) के सम्बन्ध में यह बात नहीं कह सकते हैं, क्योंकि गृहस्थ और गृहत्यागियों की परिस्थितियों इतनी भिन्न होती हैं कि दोनों समान रूप से चारित्र का पालन नहीं कर सकते हैं; इसलिए जैनशास्त्रों में चारित्र के दो विभाग कर दिए गए हैं।
स्थानांगसूत्र में सर्वविरति और देशविरति ६४- दो प्रकार के चारित्र बताए गए हैं।
सर्वविरति और देशविरति के मूल आधार में कोई अन्तर नहीं है, अन्तर है सिर्फ उनके आचरण की मर्यादा में। साधक अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानीकषाय के उदय को नष्ट करता है, परंतु प्रत्याख्यानकषाय का उदय रहता है, तब देशविरतिचारित्र का प्रादुर्भाव होता है। देशविरतिचारित्र की सीमा बहुत विस्तृत है। साधक अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार न्यूनाधिक रूप में व्रतों एवं नियमों को ग्रहण करते हैं।
श्रावक के बारह व्रत होते हैं। उनमें पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत हैं। पाँच अणुव्रत :
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- इन पाँचों को जैनधर्म में साधुओं के लिए महाव्रत के रूप में तथा श्रावकों के लिए अणुव्रत के रूप में स्वीकार किया गया है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- अहिंसा आदि इन पाँचों अणुव्रतों के लिए अन्य दर्शनों में किसी में 'व्रतधर्म', किसी में 'यम-नियम', तो किसी में 'कुशलधर्म' आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है।०६५ १. अहिंसाणुव्रत -
इस व्रत का तात्पर्य है-निरपराध त्रस जीवों का संकल्पपूर्वक वध नहीं करना। अहिंसक आचार एवं विचार से ही आध्यात्मिक उत्थान होता है। वनस्पति
४६४. चरित्तधम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- अगारचरित्तधम्मे चेव, अणगारचरित्त धम्मे चेव
- स्थानांगसूत्र, द्वितीय स्थान, प्रथम उ. सूत्र १०६ यथाऽहिंसादयः पंच व्रतधर्मयमादिभिः। पदैः कुशलधर्माद्यैः कध्यन्ते स्वस्वदर्शने ।।१२।- सम्यक्त्व अधिकार, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी
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