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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २६५ प्राप्त हो उसमें हर्ष या खेद नहीं करता है जिसकी बुद्धि स्थिर है, वह स्थितप्रज्ञ होता है।
असंग-अनुष्ठान में भी जिनकल्पी संकल्प-विकल्पों से रहित होते हैं। जैसे चंदन को चाहे काटा जाए, घिसा जाए या जलाया जाए, तो भी वह सुगंध आदि अपने धर्म को विकृत नहीं होने देता है, वैसी ही उसकी सुगंध आती है; उसी प्रकार असंग-अनुष्ठान के शरीर को चाहे काटा जाए, जलाया जाए या अन्य किसी प्रकार का उपसर्ग किया जाए तो भी वह स्वभावगत अपने क्षमाधर्म को विकृ त नहीं होने देता है। यह असंग-अनुष्ठान आयुष्यबंध, फलाकांक्षा, आसंगदोष अतिचार आदि विघ्नों से रहित मोक्ष का साधन है।
तीर्थंकरों में क्रियायोग असंग-अनुष्ठान निष्काम कर्मयोग के रूप में ही रहता है।
इस प्रकार क्रिया का अभ्यास करते-करते वह स्वभावगत बन जाती है, असंग-अनुष्ठान के रूप में परिवर्तित हो जाती है। यही क्रियायोग की उत्कृष्ट साधना है।
क्रियायोग की साधना-विधि पूर्व में हमने वर्णन किया था कि ज्ञान और तदनुसारिणी क्रिया के समन्वय से ही मुक्तिमार्ग की साधना सम्पन्न होती है, अर्थात् ज्ञान के साथ क्रिया की भी उतनी ही आवश्यकता है, जितनी भोजन के साथ पानी की। अब जिज्ञासा उठती है कि क्रियायोग की साधना-विधि क्या हैं ? क्योंकि जब तक विधि का ज्ञान नहीं हो, तब तक क्रिया का सम्यक् रूप से आचरण नहीं कर सकते है। जिस प्रकार रोग के लक्षण, निदान और प्रतिकार के उपाय को जाने बिना अविधि से अनुचित औषधि को उदरस्थ कर जाने वाला व्यक्ति निरोगता को प्राप्त नहीं कर सकता है, उसी प्रकार अविधि से की गई क्रिया लाभकारी नहीं होती है।
अतः अब क्रियायोग की साधनाविधि का वर्णन किया जा रहा है।
शास्त्रों में आध्यात्मिक विकास की चौदह भूमिकाएं वर्णित हैं। उसमें से प्राथमिक चार भूमिकाएँ सम्यग्दर्शन के आश्रित हैं और उसके आगे की समस्त भूमिकाएं चारित्र पर ही निर्भर हैं।
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