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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / २६३
आदि के वश होकर विधि पालन में विकलता नहीं आने देता है। इस प्रकार शास्त्रीय वचनों के अनुसार परिपूर्ण अनुष्ठान वचनानुष्ठान है। यह चारित्रवान् को ही होता है। प्रीति, भक्ति और वचनानुष्ठान की भूमिका का अतिक्रमण करके तत्त्वज्ञानी की प्रवृत्ति असंगअनुष्ठानरूप बनती है । उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद् ग्रन्थ में कहा है- “ज्ञान-साधक प्रारंभ में जिन-जिन साधनों को ग्रहण करता है, वे ही साधन योगसिद्ध पुरुष के स्वभाव से लक्षण बन जाते हैं, अर्थात् वे क्रियाएँ स्वभावभूत बन जाती हैं। " उ. यशोविजयजी योगविंशिका की वृत्ति में असंग अनुष्ठान की परिभाषा देते हुए कहते हैं- “व्यवहारकाल में शास्त्रवचनों के स्मरण बिना ही दृढ़तर संस्कार के कारण चन्दनगन्धन्यायानुसार आत्मसात् हुआ जिनकल्पित आदि का क्रियासेवन ही असंगअनुष्ठान है । ४६१ यह असंगानुष्ठान पूर्वकालीन आगमस्मरण के संस्कार से उत्पन्न होता है ।
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जो प्रवृत्ति बारंबार स्वरस से करने में आती है, वह प्रवृत्ति पुनः पुनः अभ्यास के कारण से आत्मसात् हो जाती है, सहज बन जाती है, अर्थात् पूर्व में जिस क्रिया को करने के लिए विशेष प्रयत्न करना पड़ता था, अब नहीं करना पड़ता है। स्थविरकल्प में परमात्मा द्वारा प्रकाशित प्रवचनगर्भित प्रणिधानपूर्वक प्रतिलेख, प्रमार्जन, प्रतिक्रमण, प्रभुभक्ति, प्रवचन आदि करने का जिनाज्ञाविषयक दृढ़ संस्कार उत्पन्न होता है। जैसे चंदन में गंध एकमेक होती है, उसी प्रकार जिनवचन विषयक सुसंस्कार आत्मसात् हो जाते हैं। उसके बाद जिनकल्प को स्वीकार करने से जिनकल्पी की प्रवृत्ति पूर्वकालीन संस्कार के द्वारा ही होती है, शास्त्रवचनों को स्मरण करने की उसे आवश्यकता नहीं होती है। इस प्रकार शास्त्रवचनों के संग बिना सहज-स्वाभाविक रूप से अनुष्ठान उचित रूप से होता रहता है, इसलिए इसे असंगानुष्ठान कहते हैं। जैसे कुम्हार को प्रथम बार चाक घुमाने के लिए दंड के व्यापार की आवश्यकता होती है, इस व्यापार से चाक में संस्कार उत्पन्न होने के बाद दंड के संयोग की आवश्यकता नहीं रहती है, चाक स्वयं घूमता ही रहता है; उसी प्रकार प्रारंभ में साधकों की उचित प्रवृत्ति के लिए जिनवचनों का व्यापार आवश्यक है। इस प्रकार वचनानुष्ठान आगम के संयोग से होता है, किंतु दंड के संयोग के बिना स्वाभाविक होने वाले उत्तरकालीन चक्रभ्रमण
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यान्येव साधनान्यादौ, गृह्णीयाजज्ञानसाधकः ।
सिद्धयोगस्य तान्येव, लक्षणानि स्वभावतः 1 19 11 - क्रियायोग, अध्यात्मोपनिषद
व्यवाहारकाले वचनप्रतिसन्धाननिरपेक्षं, दृढ़तरसंस्कारात् चन्दनगन्धन्यायेनात्मसाद्भूतं जिनकल्पिकादीनां क्रियासेवनमसंङ्गानुष्ठानम् । योगविंशिकावृत्ति २४६, उ. यशोविजयजी
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