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________________ २६२ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री १. प्रीति - अनुष्ठान के समान ही भक्ति अनुष्ठान होता है, किंतु इसमें आलंबन के प्रति अत्यंत पूज्यता के भाव रहते हैं, इसलिए यह अधिक विशुद्धि वाला होता है । षोडशक में कहा गया है- " पत्नि अत्यंत प्रिय है और माता हित करनेवाली है। जो कार्य पत्नी के प्रति प्रीति से करेगा, वही कार्य माता के प्रति भक्ति से करेगा । ४५८ इस अनुष्ठान में अतिशय प्रयत्न होता है, अर्थात् अनुष्ठान के प्रति अनुराग, सम्मानयुक्त प्रयत्न होता है। उसी प्रकार परमात्मा के प्रति प्रीति और भक्ति होती है। जैसे- “प्रभु! मैं आपकी उपासना करता हूँ, पूजा करता हूँ, आप मुझे क्षमा आदि आत्मगुण प्रदान करें।” जब तक आदान-प्रदान का व्यवहार है, तब तक प्रीति - अनुष्ठान है। ४५६ अनुष्ठान के प्रति परम प्रीति उत्पन्न होती है, जिससे अनुष्ठानकर्ता के आत्महित में वृद्धि होती है । जब निगोद से इस भूमिका तक पहुँचाने का परमात्मा का अनन्य उपकार जानने के बाद भक्ति प्रकट होती है, कृतज्ञता का भाव प्रकट होता है, तब मुक्ति की आकांक्षा भी नहीं रहती है। इस प्रकार के शब्द सहज मुख से निकल जाते है कि " मुक्ति थी अधिक तुझ भक्ति मुझ मन बसी ... .1" जहाँ केवल परमात्मा को भजने के भाव रहते हैं, वह भक्ति - अनुष्ठान कहलाता है । ४५६ ४५७ दूसरे सभी प्रयोजनों को छोड़कर अनुष्ठान में ही मन एकाग्र होता है और अनुष्ठान करते समय अपूर्व आनंद का अनुभव होता है । उ. यशोविजयजी वचनानुष्ठान की व्याख्या करते हुए कहते हैं- “साधु अनुष्ठान के समय शास्त्रार्थ, अर्थात् जिनवचनों के स्मरणपूर्वक सर्वत्र उचित प्रवृत्ति करता है, वह वचनानुष्ठान कहलाता है । " साधक अनुष्ठान करते समय प्रमाद ४८ ४५६ यत्रानुष्ठाने प्रयत्नातिशयोऽस्ति परमा च प्रीतिरूपत्पद्यते । शेष त्यागेन च यत्क्रियते तत्प्रीत्यनुष्ठानम् । - योगविंशिकावृत्ति पृ. २४० उ. यशोविजयजी यत्रादरोऽस्ति परमः प्रीतिश्च हितोदया भवति कर्तुः शेष त्यागेन करोति यघ तत्प्रीत्यनुष्ठानम् ।। - षोडशक - १० / ३ - हरिभद्रसूरि अव्यन्तवल्लभा खलु पत्नी तद्वद्धिता च जननीति । तुल्यमपि कृत्यमनयोर्ज्ञातं स्यात् प्रीति-भक्तिगतम् ।। - षोडशक - १० / ५ - हरिभद्रसूरि शास्त्रार्थप्रतिसन्धानपूर्वा साधोः सर्वत्रोचितप्रवृत्तिर्वचनानुष्ठानम् । - योगविंशिका वृत्ति - २४४, उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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