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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २६१
निरर्थक हैं।"०५३ जब ज्ञान क्रिया में रूपान्तरित होता है, दूसरे शब्दों में जब ज्ञान को जिया जाता है, तब ज्ञान सार्थक बनता है; इसलिए यह कहा गया है कि "ज्ञान का परिपाक क्रिया में होता है।"
उ. यशोविजयजी ने निम्न चार योगों की चर्चा की है- १. शास्त्रयोग २. ज्ञानयोग ३. क्रियायोग और ४. साम्ययोगा५४ इन चार योगों में साम्ययोग साध्य है। शास्त्रयोग, ज्ञानयोग और क्रियायोग उनके साधन हैं। यहाँ भी हम देखते हैं कि ज्ञान की परिणति क्रियायोग में और क्रियायोग की परिणति साम्ययोग में होना आवश्यक है। साम्ययोग की पूर्णता मोक्ष है, और उसके लिए ज्ञानयुक्त क्रिया अपेक्षित है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जैनदर्शन में ज्ञान का परिपाक क्रिया या आचरण में होना चाहिए। कहा गया है कि वही ज्ञान सार्थक है, जो आचरण में उतरकर समता रूपी साध्य की प्राप्ति कराता है।
क्रिया का परिपाक असंग अनुष्ठान (निष्काम साधना) में है
क्रिया का परिपाक असंग अनुष्ठान में किस तरह होता है? असंग अनुष्ठान किसे कहते हैं? यह जानने से पहले हमे इसके पूर्व के तीन अनुष्ठानों को भी जानना होगा।
उ. यशोविजयजी ने “चार प्रकार के अनुष्ठान बताए हैं- १.प्रीति २. भक्ति ३. वचन और ४. असंग अनुष्ठाना" ५५ ये प्रत्येक अनुष्ठान मोक्ष के साधन हैं।
योगविंशिका की वृत्ति में उ. यशोविजयजी ने ४५६ तथा षोडशक में हरिभद्रसूरि ने ५७ 'प्रीति अनुष्ठान की तीन विशेषताए बताई है
४५३. ज्ञानं क्रियाविहीनं न क्रिया वा ज्ञानवर्जिता।
गुणप्रधानभावेन दशाभेदः किलैनयोः ।।२४। योगाधिकार, १५, अध्यात्मसार -उ. यशोविजयजी अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी प्रीतिभक्तिवचोऽसंगैः स्थानाद्यपि चतुर्विधम् । तस्मादयोगयोगाप्तेर्मोक्षयोगः क्रमाद् भवेत्।७। योग, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी
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