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________________ २६०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री ज्ञान का परिपाक क्रिया में जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मोक्षमार्ग कहा गया है। जैनदर्शन की यह भी विशेषता है कि वह इनमें से किसी एक को मोक्षमार्ग नहीं कह करके तीनों की समन्वित साधना को ही मोक्षमार्ग कहता है। यद्यपि मुक्ति की उपलब्धि के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रतीनों की ही साधना अपेक्षित है, फिर भी इसमें यह माना गया है कि सम्यग्दर्शन साधना का प्राथमिक चरण है। उसके बाद दूसरा चरण सम्यग्ज्ञान है। जब तक दृष्टि शुद्ध नहीं होती है, तब तक ज्ञान भी शुद्ध नहीं होता है। ज्ञान के सम्यक् होने के लिए दृष्टि का सम्यक् होना आवश्यक है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के बाद साधना का तीसरा चरण सम्यकचारित्र है। यह भी माना गया है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के अभाव में सम्यकूचारित्र नहीं होता है, किन्तु इसके साथ ही जैनदर्शन की यह भी मान्यता है कि जब तक चारित्र पूर्णतः सम्यक् एवं शुद्ध नहीं होता, तब तक मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है। इस प्रकार चारित्र को मुक्ति का अन्तिम कारण माना गया है, लेकिन सही अर्थों में देखें, तो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र- तीनों ही समन्वित रूप में साधन है। यहाँ हम देखते हैं कि जब सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान चारित्र में अभिव्यक्त होते हैं, तो ही मुक्ति की उपलब्धि होती है। इस प्रकार से सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का परिपाक सम्यकूचारित्र में होता है। उ. यशोविजयजी की मान्यता है कि वह ज्ञान जो जिया न जाए, निरर्थक है। अंधे व्यक्ति के लिए करोड़ों दीपक व्यर्थ होते हैं, जबकि आँख वाले के लिए एक ही दीपक पर्याप्त होता है। इस प्रकार आंशिक ज्ञान भी क्रियान्वित होने पर सफल होता है और क्रियान्विति के अभाव में विपुल ज्ञान भी निरर्थक होता है। वस्ततः जो ज्ञान क्रिया में परिणत नहीं होता है, वह ज्ञान यथार्थज्ञान नहीं है। जैनदर्शन में ज्ञान का अर्थ जानना नहीं जीना है। यही कारण है कि पूर्व जैनाचार्यों ने पंचाचार के अंतर्गत ज्ञानाचार को भी स्थान दिया है। क्रिया से रहित ज्ञान केवल बुद्धिविलास है। ज्ञान का परिपाक क्रिया में होना ही चाहिए। जो ज्ञान आचरण में नहीं ढलता है, वह ज्ञान मात्र ज्ञान के अहंकार को पैदा करता है। उ. यशोविजयजी का उद्घोष है कि “ज्ञानशून्य क्रिया और क्रियाशून्य ज्ञान-दोनों ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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