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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २५६
की प्रधानता है और सर्वविरति में ज्ञानयोग की प्रधानता है। जब तक देशविरति में निपुणता नहीं आई हो, तब तक सर्वविरति की तरफ किस प्रकार जा सकते हैं। श्रावक के अणुव्रत हैं और साधु के महाव्रत हैं। जो अणुव्रत का बराबर पालन नहीं कर सकते हैं, वे महाव्रत का पालन किस प्रकार करेंगें? इसलिए जिसे ज्ञानयोग सिद्ध करना है, उसे पहले कर्मयोग सिद्ध करना पड़ेगा। उ. यशोविजयजी कहते हैं- "कर्मयोग द्वारा चित्त की शुद्धि प्राप्त करने वाले निरवद्य प्रवृत्ति वाले ज्ञानियों को ज्ञानयोग की योग्यता प्राप्त होती है।"४५२ इस प्रकार कर्मयोग में से ज्ञानयोगी बनने के लिए स्वयं की सर्वप्रवृत्तियों की शुद्धि के लिए साधक को बहुत पुरुषार्थ करना पड़ता है।
साधक कर्मयोग में से ज्ञानयोग की तरफ जब गति करता है, तब उसके क्रोधादि कषाय कम होते जाते हैं। दोष घटते जाते हैं और आत्मसाधना की ओर उसकी रुचि बढ़ती जाती है। इस प्रकार देशविरति व्रतरूपी कर्मयोग, दोषों के निवारण के लिए और ज्ञानयोग की वृद्धि के लिए सुंदर भूमिका निभाता है। उपवास, आयंबिल, सामायिक, प्रतिक्रमण, वंदन, कायोत्सर्ग आदि क्रियाएँ भी जो श्रद्धा, मेधा, धृति, धारणा और अनुप्रेक्षापूर्वक की हो, तो वह आवश्यक ज्ञानयोग में रूपांतरित हो जाती हैं। किस क्रिया से प्रमुख रूप से किस गुण की प्राप्ति और किस दोष का निवारण होता है, यह निम्नलिखित तालिका में बताया गया हैसामायिक - समभाव की प्राप्ति - रागद्वेष का त्याग चतुर्विंशतिस्तव - गुणानुराग
- आत्मप्रशंसा का
त्याग
वंदन प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग
नम्रता स्वदोषदर्शन परोपकार की भावना
- अहंकार का त्याग - परनिंदा का त्याग - शरीर के ममत्व
का त्याग
प्रत्याख्यान
विरति
. - आसक्ति का त्याग
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ज्ञानिनां कर्मयोगेन चित्तशुद्धिमुपेयुषाम् । निरवद्यप्रवृत्तीनां ज्ञानयोगौचिती ततः।।२५ | Fयोगाधिकार -१५-अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी
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