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________________ २५८ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री गया। यह वणिक को खत्म करने की पिशाच की योजना थी, परंतु वणिक बहुत बुद्धिमान था। उसने पिशाच से कहा कि वह जंगल से ऊँचें बास लेकर आए और उसकी नसेनी बनाए । पिशाच ने तुरंत वह काम कर दिया। तब वणिक ने घर के बाहर नसेनी रखाई और पिशाच से कहा- "जब तक मैं तुझे दूसरा काम नहीं बताऊँ, तब तक तू इस नसेनी पर चढ़ और उतर । " पिशाच वचनबद्ध था। बुद्धिमान वणिक ने पिशाच को जिस तरह वश में कर लिया, उसी प्रकार संयम जीवन में भी साधको को प्रमादरूपी पिशाच को क्रियायोग द्वारा वश में करना चाहिए। दूसरे कुलवधू के दृष्टान्त में भी श्वसुर द्वारा कुलवधू को घर की सारी जवाबदारी देकर उसे घर के काम में इस तरह जोड़ दिया गया कि पति विरह में उत्पन्न हुई उसकी कामवासना समाप्त हो गई। इन दोनों दृष्टान्तों के द्वारा उ. यशोविजयजी ने क्रियायोग का प्रयोजन समझाया। चित्त सतत विचार करता ही रहता है। उससे भूतकाल की स्मृति और भविष्यकाल की तरंगें उठती रहती हैं। भय, चिंता, उद्वेग, लोभ, लालच, लाचारी, ईर्ष्या, द्वेष, स्पर्धा, असूया, गुणमत्सर, हिंसक तरंगें कामवासना की कल्पनाएँ, अहंकार, गुरुताग्रंथि, हीनभाव - दीनभाव, लघुताग्रंथि - ऐसे अनेक प्रकार के असद्भाव चित्त में जानते अजानते उत्पन्न हो जाते हैं, किंतु साधक अगर जाग्रत हो, तो शास्त्रों में बताई हुई आवश्यक क्रियाओं में चित्त को सतत जोड़कर रखने से चित्त की चंचलता को रोका जा सकता है। (२) कर्मयोग का दूसरा प्रयोजन ज्ञानयोग की प्राप्ति कराना है और उसकी वृद्धि कराना है । उ. यशोविजयजी कहते हैं- “पूर्वभूमिका के रूप में कर्मयोग दोषों का नाश करने वाला और ज्ञानयोग की वृद्धि करने वाला होता " है । ” ४५१ ज्ञानयोग में चित्तशुद्धि - यह प्रथम आवश्यकता है । चित्तशुद्धि के विविध उपायों में महत्त्व का उपाय कर्मयोग है। साधक आत्माएँ जैसे-जैसे धर्मक्रिया करती हैं, वैसे-वैसे उनके चित्त विशुद्ध होते जाते हैं। जैनधर्म में साधना के क्रम में पहले देशविरति आती है, फिर सर्वविरति । देशविरति श्रावक का आचारधर्म है और सर्वविरति साधु का आचारधर्म है। देशविरति, यानी कुछ अंशों में सावद्य ( दोषयुक्त ) प्रवृत्तियों का त्याग करना । सर्वविरति, अर्थात् सावद्य प्रवृत्तियों का सर्वथा त्याग करना । देशविरति में कर्मयोग ४५१ कोद्देशेन संवृत्तं कर्म यत्पौर्वभूमिकम् दोषोच्छेदकरं तत्स्याद् ज्ञानयोगप्रवृद्धये ।। २७ ।। योगाधिकार - १५- अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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