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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २५७ अधिक लाभकारी होगा। यह बात सत्य है कि बिस्किट देने के बजाय पीपरमेंट का वास्तविक स्वरूप समझाने का मार्ग, अर्थात् ज्ञानयोग का मार्ग अधिक उत्कृष्ट है, किंतु यह मार्ग प्राथमिक भूमिका वाले के लिए उपयुक्त नहीं है। यह बाल मन चंचल बनकर बार बार विषयों की ओर दौड़ जाता है। प्राचीन कहावत है 'खाली मन शैतान का घर', जब भी मन खाली होता है, तब उसमें अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प विचार उठा करते हैं। चित्त के आवेगों को रोकना इतना सरल नहीं है, इसलिए चित्त को यदि सतत शास्त्र में कही हुई आवश्यक क्रियाओं में जोड़कर रखा जाए, तो सांसारिक विषयों में से वह धीरे-धीरे दूर हट जाएगा। उ. यशोविजयजी कहते हैं- “पिशाच के दृष्टान्त और कुलवधू के शीलरक्षण के दृष्टान्त को सुनकर साधकों को अपने मन को नित्य संयमयोगों में जोड़कर रखना चाहिए।"५० उ. यशोविजयजी ने प्राचीनकाल से प्रचलित ऐसे दो दृष्टान्त देकर समझाया कि विषयों की तरफ से मन को किस प्रकार मोड़ना और क्रियायोग साधना से जोड़ना चाहिए। __पहला दृष्टान्त इस प्रकार है- एक वणिक एक विशाल वृक्ष के नीचे रोज शौचक्रिया के लिए जाता और वहाँ जाकर बोलता कि यह जगह जिसकी हो, मुझे अनुज्ञा प्रदान करो। उस वृक्ष पर एक व्यंतरदेव रहता था। वह देव विचार करता कि यह रोज मेरी अच्छी भूमि को दुर्गध वाली कर देता है, परंतु पहले यह मेरी अनुज्ञा ले लेता है, इसलिए इसको मैं सता नहीं सकता, अतः कोई दूसरा रास्ता निकालना चाहिए। एक दिन देव ने प्रत्यक्ष होकर उसको कहा कि- “हे वणिक! तू शिष्टाचार वाला है, सज्जन है। मैं इस वृक्ष पर रहता हूँ और तू रोज मेरी आज्ञा लेकर शौचक्रिया करता है, इसलिए मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ। मैं तुझे वरदान देता हूँ कि तू जो भी काम मुझे बताएगा, मैं तुरंत कर दूंगा।" वणिक उसे घर ले गया। तब यक्ष ने कहा- "मैं काम तो सभी कर दूंगा, लेकिन खाली बैठने कि मुझे आदत नहीं है। यदि मुझे कार्य नहीं बताया, तो मैं तुझे खा जाऊँगा।" वणिक जो भी काम बताता पिशाच उसे दैवीशक्ति से क्षण में कर देता। वणिक परेशान हो ४०. श्रुत्वा पैशाचिकी वाती कुलवध्वाश्च रक्षणम्। नित्यं संयमयोगेषु व्यापृतात्मा भवेद्यतिः ।।१८।। अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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