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________________ २५६ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री करना चाहिए। क्रियासहित ऐसे ज्ञान से सम्यक् योग उत्पन्न होता है और क्रियायुक्त ज्ञान निर्दोष होता है । ' ४४८ इस प्रकार ज्ञान और क्रिया- दोनों मिलकर ही मोक्ष के हेतु हैं, अतः ज्ञान होने पर भी क्रिया की नितान्त आवश्यकता है। क्रियायोग का प्रयोजन व्यक्ति कोई भी कार्य बिना प्रयोजन के नहीं करता है, अतः यहाँ भी प्रश्न उठता है कि क्रियायोग का प्रयोजन क्या है? किस उद्देश्य से क्रियाएँ की जाती हैं? वैसे तो क्रियायोग के अनेक प्रयोजन होते हैं, परन्तु उपाध्याय यशोविजयजी ने क्रियायोग के कुछ महत्त्वपूर्ण निम्न लिखित प्रयोजन बताए हैं (9) चित्त को अन्य विषयों से निवृत्त करके, चंचलता से मुक्त करके, उसे आत्मस्वरूप की ओर ले जाना - यह क्रियायोग का मुख्य उद्देश्य है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- साधकों को अपने मन को विषयों से दूर रखने के लिए शास्त्रों में कही हुई समस्त क्रियाएँ करनी चाहिए। ,,४४६ जैन शास्त्रकारों ने एक बहुत सुंदर बात संसार त्यागियों को बताई कि उन्हें यदि अशुभवृत्तियों से दूर रहना हो, तो वे अपने मन को सतत शुभवृत्ति में जोड़े रखें। क्योंकि यह मन बहुत ही चंचल है, इस पर केवल ज्ञानयोग से काबू नहीं पाया जा सकता है, क्योंकि यह मार्ग बहुत कठिन है। जैसे कोई बालक बहुत अधिक पीपरमेंट खाता है, उल्टी-दस्त होने पर भी नहीं छोड़ता, अगर उसे पीपरमेंट की खराबी बताकर उस पर कड़ा प्रतिबंध लगा दिया जाए तो भी वह नहीं छोड़ेगा, बल्कि उसे उसके प्रति अधिक राग हो जाएगा, वह चोरी-छुपे खाएगा, किंतु उसे पीपरमेंट की खराबी बताने के बजाय उसे ऐसे भक्ष्य बिस्किट अधिक प्रमाण में दे दिए जाएं, तो वह अपने आप पीपरमेंट खाना छोड़ देगा। इस प्रकार दमन का मार्ग अपनाने के बजाय बिस्किट देने का रचनात्मक मार्ग अपनाना ४४८ ४४६ कर्मणा प्राप्यते धर्मो ज्ञानेन च न संशयः । तस्माज्ज्ञानेन सहितं कर्मयोगं समारयेत् ।।१ / २ - कर्मपुराण - पृ. २८ अत एवादृढस्वान्तः कुर्याच्छास्त्रोदितां क्रियाम् । सकलां विषयप्रत्याहरणाय महामतिः ।।१७।। - अध्यात्मसार - योगाधिकार - १५ यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only - उ. www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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