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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २५५
ज्ञानी को भी क्रिया उपयोगी है,४४ अर्थात् तत्त्वज्ञानी को भी पूर्वकाल में बाँधे हुए
और वर्तमान में सत्ता में रहे हुए, किन्तु उदय में नहीं आए- ऐसे कर्मों का नाश करने के लिए आगम में बताई हुई परिशुद्धक्रिया आवश्यक हो जाती है।
" जो ज्ञान से नष्ट हो उन कर्मों के क्षय के लिए जैसे ज्ञान आवश्यक है, उसी प्रकार क्रिया भी आवश्यक है।
इस प्रकार उ. यशोविजयजी कहते हैं- “सम्पूर्ण कर्मों के क्षय के लिए परस्पर अभिन्न ज्ञान और क्रिया का समुच्चय ही उपयोगी है।"४४५ ज्ञान द्वारा नाश्य कर्मों के नाश करने में ज्ञान प्रधान कारण होता है और क्रिया उसमें सहायक होती है, उसी प्रकार क्रिया द्वारा नाश्य कर्मों के नाश करने में क्रिया मुख्य होती है और ज्ञान उसमें सहायक होता है।
विशेषावश्यकभाष्य में भी कहा गया है- "जिस प्रकार वन में लगी हुई आग को देखते हुए पंगु और इधर-उधर भागने की क्रिया करते हुए अंधा-दोनों जल गए, उसी प्रकार क्रिया बिना ज्ञान निष्फल है और ज्ञान बिना क्रिया निष्फल
___ अन्यदर्शनों में भी ज्ञान और क्रिया- दोनों के समुच्चय से ही मोक्ष को स्वीकार किया गया है। योगशिखा नामक उपनिषद् में कहा गया है कि क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानहीन क्रिया मोक्ष प्राप्ति में समर्थ नहीं है, इसलिए साधकों को ज्ञान और क्रिया- दोनों का दृढ़ता से बराबर परिशीलन करना चाहिए।
कर्मपुराण में कहा गया है कि क्रिया और ज्ञान द्वारा धर्म प्राप्त होता है। उसमें कोई संदेह नहीं है, इसलिए ज्ञानरहित क्रियायोग का सम्यक्प से सेवन
४४. सत्यं क्रियागमप्रोक्ता ज्ञानिनोऽप्युपयुज्यते। संचितादृष्टनाशार्थमासुरोऽपि यदभ्यद्यात्- वही
३/२० सर्वकर्मक्षये ज्ञानकर्मणोस्तत्समुच्चयः अन्योन्य प्रतिबन्धेन तथा चोक्तं परैरपि ।।३४।। -वहीं हय नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया। पासंतो पंगुलो दढ्डो, धावमाणोय अंधओ।।११५६ । विशेषावश्यकभाष्य योगहीनं कथंज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः। योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।।१३।। योगशिखोपनिषद -अध्ययन -१
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