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________________ २५४ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री जानता हूँ।” अन्त में पत्नी बोली- “ चोर धन लेकर जा रहा है।" पति ने कहा- "मैं पत्नी झुंझलाकर बोली इस प्रकार पुरुषार्थ के अभाव में मात्र जानने से वह व्यक्ति धन को नहीं बचा सका । उसी प्रकार आध्यात्मिक मार्ग में भी केवल जानना ही पर्याप्त नहीं है। आत्मनिधि या आत्मस्वरूप के विषय की जानकारी होने पर भी उसे प्राप्त करने के लिए अपनी कक्षा के अनुरूप क्रिया करना आवश्यक है। हिंसा के क्रूर विपाक् जानने के बाद भी जो हिंसा की क्रिया का त्याग नहीं करे, तो उस निष्क्रिय व्यक्ति को कोई विशेष लाभ नहीं होता है । उ. यशोविजयजी कहते हैं"क्रिया बिना का अकेला ज्ञान अनर्थक है। मार्ग का जानकार भी मार्ग में गति किए बिना इच्छित नगर में नहीं पहुँच सकता है । ४४२ ४४१ समुद्र में गिरा हुआ कुशल तैराक (तैरने के विषय में निपुण ज्ञान वाला ) यदि हाथ-पैर नहीं हिलाए, तो वह किनारे पर नहीं पहुँच सकता, उल्टा समुद्र में ही डूब जाएगा । उ. यशोविजयजी का कथन यही है कि ज्ञानयोगी को भी क्रिया आवश्यक है। ४४२ - ज्ञाननय के अनुसार कोई यह प्रश्न करे कि अज्ञान का नाशक होने के कारण ज्ञान ही उत्कृष्ट है। वास्तव में रस्सी में सर्प की भ्रान्ति भागने की क्रिया से निवृत्त नहीं होती हैं। ४४३ इस प्रकार क्रिया से ज्ञान अधिक बलवान् है, अतः ज्ञान ही आचरणीय है, क्रिया नहीं । ४४३ " तोड़ तिजोरी धन लियो, चोर गयो अति दूर। जाणें जाणें कर रह्यो, जाणपणा मैं घूर ।। ४४१ उ. यशोविजयजी इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहते हैं कि उपर्युक्त बात सत्य है, किन्तु शास्त्रों में बताई हुई क्रिया, संचित अदृष्ट की नाशक होने से Jain Education International "मैं जानता हूँ" -आचार्य यन्तसेनसूरि क्रियाविरहितं हन्त, ज्ञानमात्रमनर्थकम् । गतिं विना पथर्शोऽपि नाप्नोति पुरमीप्सितम ।।१३।। अध्यात्मोपनिषद - उ. यशोविजयजी अज्ञाननाशकत्वेन ननुज्ञानं विशिष्टयते । न हि रज्जावहिभ्रान्तिर्गमनेन निवर्तते।। -अध्यात्मोपनिषद् - ३/१६ - उ. यशोविजयजी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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