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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २५३ भगवद्गीता में भी क्रिया की उपादेयता बताते हुए कहा गया है"अपने-अपने अनुष्ठानों में मग्न रहे हुए मनुष्य ही उत्तम सिद्धि को प्राप्त
करते हैं।।४३६
महाभारत में भी कहा गया है- “हे राजन! ज्ञानी होकर आचार से भ्रष्ट हो, त्यागी होकर धन का संग्रह करने वाला हो, गुणवान होकर भाग्यहीन हो-इस बात में मैं कभी भी श्रद्धा नहीं करता।"७७° इस प्रकार कहकर यही सूचित किया गया है कि ज्ञानी को अवश्य क्रियायोग होता है। - केवल जानना किसी काम का नहीं। जानने के बाद उसके अनुरूप आचरण भी होना चाहिए। जो ज्ञान आचरण में नहीं उतरता, वह ज्ञान निरर्थक है। थोड़ा भी ज्ञान यदि आचरण में उतर जाए तो वह आध्यात्मिक मार्ग में आगे बढ़ जाता है। तम्बाकू के विषय में, उसके सेवन से होने वाली हानियों के बारे में, मात्र ज्ञान होना पर्याप्त नहीं है। उसे छोड़ने की क्रिया करने पर ही उसकी हानियों से बचा जा सकता है।
आचार्य जयन्तसेनसूरि ने "मैं जानता हूँ" नामक पुस्तक में एक छोटा सा दृष्टान्त दिया है, जो यहाँ देना प्रासंगिक होगा- .
एक घर में रात्रि में एक चोर घुस गया। पत्नी की नींद खुल गई। उसने अपने पति से कहा कि- घर में चोर घुस गया है। पति ने जवाब दिया- “मैं जानता हूँ।"
फिर पत्नी ने कहा- “चोर तिजोरी तक पहुंच गया हैं।" पति ने कहा"मै जानता हूँ।"
तब पत्नी बोली- “उसने तिजोरी तोड़कर सारा धन निकाल लिया है।" पति ने कहा- “मैं जानता हूँ।"
पुनः पत्नी ने कहा- “चोर धन लेकर जा रहा है।" पति ने कहा- “मैं जानता हूँ।"
४३६. स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नरः १८/४५ -भगवद्गीता
ज्ञानवान शीलहीनश्च त्यागवान धनसङग्रही। गुणवान् भाग्यहीनश्च राजन्! न श्रद्धाम्यहम्।। -महाभारत
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