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________________ २५२/साध्वी-प्रीतिदर्शनाश्री छमस्थ को प्रमत्त अवस्था से ऊपर की अवस्था अंतर्मुहूर्त से अधिक नहीं रह सकती है, इसलिए प्रमत्त अवस्था में उचित ऐसी धर्मध्यानपोषक क्रियाएँ धर्म का प्राण हैं। केवल चित्तनिरोधरूप ध्यान मुक्ति का साधन नहीं बन सकता है, किंतु मिथ्यात्व, अविरति तथा प्रमाद को दूर करने वाला मन-वचन काया का शुभ व्यापार ही क्रम से प्राप्त दोषों को दूर करके अंत में एक अंतर्महर्त में ही केवल ज्ञान हो, ऐसे अप्रमत्तादि गुणस्थान की प्राप्ति कराता है। किसी व्यक्ति ने प्राथमिक कक्षा उत्तीर्ण नहीं की हो और वह मेडिकल कॉलेज के चक्कर लगाता है, डाक्टर बनने की बात करता है, तो वह डॉक्टर बन नहीं जाता है। आज इस काल में इस क्षेत्र में संघयण बल आदि के अभाव में केवलज्ञान और मुक्ति नहीं है और उसके कारण रूप अप्रमत्तगुणस्थान के ऊपर के गणस्थान भी नहीं है, अतः वर्तमान में तो स्वयं की भूमिका के अनुरूप क्रिया करना तथा उससे पतित नहीं होना ही वास्तविक मुक्तिमार्ग है। इसलिए ज्ञान होने पर भी क्रिया की नितान्त आवश्यकता है। उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद में क्रिया की महत्ता बताने वाले आसुर ऋषि के वचन को दो श्लोकों द्वारा इस प्रकार प्रस्तुत किया है ___"हे पुत्र! जिस प्रकार क्रिया से ही तण्डुल के छिलके दूर होते हैं, तांबे का कालापन भी क्रिया से दूर होता है, उसी प्रकार आत्मा का मैल भी क्रिया से ही नष्ट होता है। जिस प्रकार तण्डुल के छिलके स्वाभाविक होने पर भी नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार जीव का कर्ममल स्वाभाविक होने पर भी क्रिया द्वारा नष्ट होता है। इसमे कोई संदेह नहीं है।"७३७ महोपनिषद् में भी पुरुषार्थ की महत्ता, उपयोगिता और आवश्यकता पर बल देते हुए कहा गया है- “श्रेष्ठ पराक्रमयुक्त प्रयत्न के द्वारा शास्त्रानुसार समभावपूर्ण आचरण करने वाला कौन सिद्धि को प्राप्त नहीं होता?"३८ ४३७ तण्डुलस्य यथा वर्म यथा ताम्रस्य कालिका। नश्यति क्रियया पुत्र! पुरुषस्य तथा मलम।२१|| जीवस्य तण्डुलस्येव मलं सहजमप्यलम्। नश्यत्येव न सन्देहस्तस्मादुद्यमवान् भव ।।२२ ।। -अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी ३८. महोपनिषद् -५/८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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