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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / २५१ मिथ्यात्व आदि दोषों के परिणाम की समीक्षा करने से, तीर्थंकरों की भक्ति करने से, सुसाधु की सेवा करने से और उत्तर गुणों की श्रद्धा करने से प्रशस्त परिणाम उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न हुए प्रशस्त परिणाम कभी भी विनष्ट नहीं होते हैं । ४३५
जैन शास्त्राकारों का विशेष रूप से यही कहना है कि केवल भावना से या केवल तत्त्वज्ञान के बल से किसी भी जीव को मोक्ष प्राप्त हुआ नहीं, होता नहीं है, और होगा भी नहीं। सद्गति या मोक्ष का मुख्य आधार अकेला ज्ञान ही नहीं, किन्तु ज्ञानयुक्त क्रिया है । सर्वश्रुतज्ञान का सार चारित्र है और सर्वचारित्र का सार मोक्ष है।
उ. यशोविजयजी कहते हैं- “निश्चय धर्म न तेणे जाण्यो, जे शैलेशी अंत वखाण्यो धर्म अधर्म तणो क्षयकारी, शिवसुख दे जे भवजल तारी तस साधन तु जे जे देखे, निज निज गुणठाना न लेखे तेह धरम व्यवहारे जाणो, कारज कारण एक प्रमाणो” ४३६ जो व्यक्ति चित्तनिरोध रूप निश्चयधर्म को ही एक कर्मक्षय और मोक्ष का साधन मानता है, एकांतवाद धारण करने वाले को उ. यशोविजयजी उत्तर देते हुए कहते हैं कि मोक्ष का अनंतर साधन जो निश्चय धर्म है, वह तो शैलेशी अवस्था के अंत में कहा गया है कि जो पुण्य और पाप दोनों को क्षय करके मोक्ष प्रदान करता है, किन्तु उसके साधनरूप जो-जो धर्म या क्रियाएँ अपने-अपने गुणस्थानक के अनुसार उचित हैं, वे भी निश्चयधर्म का कारणरूप होने से धर्म हैं। कार्य और कारण - दोनों के बीच कथंचित् एकता होने से दोनों ही प्रमाणरूप है। कार्य की उत्पत्ति कारण से होती है, इसलिए निश्चयधर्म की उत्पत्ति में कारणरूप व्यवहारधर्म है, जो प्रशस्त क्रियारूप में है। जब तक योग क्रिया का संपूर्ण निरोध नहीं होता है, तब तक जीव योगारंभी है। इस दशा में मलिन आरंभ का त्याग कराने वाले, शुभ आरंभ में जोड़ने वाले, तथा आलस्यदोष और मिथ्याक्रम को दूर करने वाले प्रशस्त व्यापार भी ध्यानरूप ही हैं और परमधर्म रूप हैं। ध्यान बिना कर्म का क्षय नहीं है- यह बात जितनी सत्य है, उतनी ही यह बात भी वास्तविक है कि प्रमत्त अवस्था जब तक है, तब तक उपयोग युक्त क्रिया को छोड़कर दूसरा कोई धर्म आचार नहीं है।
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श्रावकधर्मविधि - पंचाशक ग्रंथ ( १ / ३६ / ३७ / ३८ ) - हरिभद्रसूरि ४३६ सवासो गाथा का स्तवन -ढाल १० वीं गाथा २ - ३ उ. यशोविजयजी
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