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________________ २५०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री कवल डाले बिना ही तृप्ति की आकांक्षा करते हैं। ऐसा तो कभी भी फलित नहीं होता है।४३३ चारित्राचार से भ्रष्ट हुआ व्यक्ति धर्म से पराङ्मुख हो जाता है। - जो व्यक्ति यह कहते हैं कि मोक्ष में जाते समय सभी क्रिया छुटने की है, तो फिर मोक्ष जाने के पहले क्रिया करने की क्या आवश्यकता है? इसका उत्तर देते हुए उपाध्याय यशोविजयजी 'अध्यात्मोपनिषद् की टीका में कहते हैं कि जो व्यक्ति इस प्रकार कहकर क्रिया की उपेक्षा करता है, उसे तो भोजन भी ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि ग्रहण किए हुए भोजन का भी अंत में मल के रूप में विसर्जन करना पड़ता है। जिस प्रकार मल रूप में परिणत होने की दशा ज्ञात होने पर भी सभी लोग भोजन ग्रहण करते हैं, क्योंकि भोजन से शक्ति प्राप्त होती है, तप्ति मिलती है, उसी प्रकार मोक्ष में जाने के पूर्व सभी क्रियाएं छोड़ने की होने पर भी आध्यात्मिक मार्ग में आगे बढ़ने के लिए, आत्मशुद्धि प्राप्त करने के लिए, धर्मसामग्रीप्रापक पुण्य प्राप्त करने के लिए अपनी-अपनी भूमिका के अनुरूप बाह्यक्रिया तो करना आवश्यक है। उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं- "गुणवानों के प्रति बहुमान आदि नित्यस्मृति पूर्वक जो सत्क्रिया की जाती है, वह अनुत्पन्न सद्भाव को उत्पन्न करती है और उत्पन्न सद्भाव को गिरने नहीं देती है।"३४ गुणों से अलंकृत जीवों का बहुमान, भक्ति आदि करने से तथा यम, नियम रूप जो भी प्रतिज्ञा ली हैं, उनका स्मरण करने से वंदन पूजन, वैयावच्च, सिद्धांत श्रवण, लेखन, दान आदि सर्वज्ञ द्वारा बताई गई शुभक्रियाएँ आत्मा के परिणाम को निर्मल रखने में प्रबल शक्तिशाली हैं, इससे विपरीत जो शुभक्रियाओं का त्याग कर दिया जाए, तो पूर्व में उत्पन्न हुआ प्रशस्तभाव भी शिथिल हो जाता है और अनुत्पन्न शुभभाव उत्पन्न नहीं हो सकता है। हरिभद्रसरि ने पंचाशक ग्रंथ में क्रिया की महत्ता बताते हुए कहा है कि स्वीकृत किए गए व्रतों का सदा स्मरण करने से, गुणवानों का बहुमान करने से, व्रतों के प्रतिपक्षी मिथ्यात्व के प्रति जुगुप्सा भाव रखने से, सम्यक्त्वादि गुणों तथा ४३३ ४३४ बाह्यभावं पुरस्कृत्य, येऽक्रिया व्यवहारतः। वदने कवलक्षेपं, विना, ते तृप्तिकांक्षिणः।।१५।। (अ) अध्यात्मोपनिषद -उ. यशोविजयजी (ब) ज्ञानसार -६/४ गुणवद्बहुमानादेर्नित्यस्मृत्या च सत्क्रिया। जातं न पातयेद्भावमजातं जनयेदपि ।।१६।। अध्यात्मोपनिषद् -उ. यशोविजयजी (ब) ज्ञानसार -E/५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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