SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २४९ यह नैसर्गिक नियम है कि जैसा बीज बोया जाता है, वैसा ही फल प्राप्त होता है। उपर्युक्त सभी कार्य बुरे हैं, अतः इन सबका फल भी अनिष्ट दुःखरूप ही मिलता है। __ अशुभव्यवहार से बचने के लिए शुभव्यवहार, अर्थात् पुण्य-प्रवृत्तियों में जुड़ना आवश्यक है। शुद्धदशा की उपलब्धि के लिए शुभ की साधना आवश्यक होती है। आध्यात्मिक साधना का क्रम यही है कि व्यक्ति अशुभ से शुभ की ओर तथा शुभ से शुद्ध की ओर बढ़े। ज्ञान होने पर भी क्रिया की आवश्यकता यहाँ यह प्रश्न उठता है कि धर्मक्रिया तो शरीर करता है और शरीर की क्रिया से शरीर को लाभ होता है। जैसे व्यायाम से शरीर पुष्ट होता है, परंतु उससे आत्मा को लाभ किस प्रकार होगा? क्योंकि आत्मा की उन्नति अवनति तो आत्मा की परिणति पर आधारित है, तो फिर क्रिया की आवश्यकता किसलिए? किन्तु जैनदर्शन की मान्यता है कि संसारी आत्मा की परिणति बाह्य क्रिया के साथ बहुत जुड़ी हुई रहती है। शुभक्रिया करने से आत्मा की परिणति निर्मल होती है और अशुभक्रिया से आत्मा की परिणति मलिन होती है। जैसे कोई शिष्य अपने गुरु की सेवा, या कोई पुत्र अपने माता-पिता की सेवा करने की कायिकक्रिया नहीं करें, तो उसमें अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। सर्वप्रथम तो 'गुरुजन पूजा' की शुभ परिणति का अभाव हो जाता है तथा स्वार्थ की दुर्वृत्ति पैदा हो जाती है। वह उन पूज्यों के उपकारों के सामने अपने शरीर की सुखशीलता को अधिक महत्त्व देता है, इससे उसमें कृतज्ञता का भाव भी समाप्त हो जाता है। सेवाधर्म के पालन से कृतज्ञता, नम्रता, परार्थवृत्ति आदि अनेक आंतरिक शुभ परिणति उत्पन्न होती हैं और वृत्ति उत्तरोत्तर विशुद्ध होती है। 'बाह्यक्रिया आत्मा पर कुछ असर नहीं कर सकती'- इस बात को उपाध्याय यशोविजयजी स्वीकार नहीं करते हैं। वे कहते हैं कि जो व्यक्ति क्रिया बिना मात्र ज्ञान से मोक्ष प्राप्त करने की बात करते हैं, वे वास्तव में मुख में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy