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________________ २४८/ साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री नन्हा सा जीव मर नहीं जाए इस करुणाभाव से वह इतना कष्ट सहन करता है। यह भी कायपुण्य का एक प्रकार है । मन की पवित्रता के साथ तन का संयम, तन से सेवा - परोपकार आदि किया जाता है, तब ही वह सार्थक होता है। कहा गया है- “ परोपकारार्थमिदं शरीरम्।” शरीर को पर उपकार के कार्यों में लगा देना- यही शरीर पाने की सार्थकता है। ६. नमस्कार पुण्य नमस्कार पुण्य का विषय जितना जीवनापयोगी है, उतना ही गहन है। जब मन के अन्दर से अहंकार का भाव निकलता है, तब नमस्कार का भाव जाग्रत होता है । नीतिकार चाणक्य ने कहा है - नमस्कार पाँच कारणों से किया जाता है 9. ३. ४. भाव से माता श्रद्धा और आदरभाव से परमात्मा को, गुरुजनों को राजा आदि सत्ताधारी लोगों को । अपने से छोटों को, मिलने-जुलने वालों को । ५. आशा से - किसी बड़े आदमी से कुछ पाने की आशा से । इसमें भाव से नमस्कार करना श्रेष्ठ है। इसे हम वन्दना भी कह सकते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में गौतमस्वामी प्रश्न करते है- “भन्ते! वन्दना करने से क्या लाभ मिलता है ?" भगवान् कहते हैं- “गौतम! वन्दना नमस्कार से जीव नीच गोत्रकर्म का क्षय करता है और उच्च गोत्र का कर्मबंध करता है। साथ ही अखण्ड सुखसौभाग्य भी प्राप्त करता है । " Jain Education International -पिता को । प्रेम से - मित्रों को, स्वजनों को । प्रभुत्व से व्यवहार से इस प्रकार यह नौ प्रकार के पुण्य शुभव्यवहार में ही आते हैं। इसके विपरीत हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, रोग, द्वेष, क्लेश, दोषारोपण, चुगली, परनिन्दा, हर्ष, शोक, मायामृषावाद - मिथ्यात्व ये अठारह प्रकार के पापकर्म हैं। यह अशुभव्यवहार कहलाता है। जिस प्रवृत्ति से स्वयं का या अन्य का अहित हो, हानि हो, दुःख हो, पतन हो, वे क्रियाएं अशुभ कहलाती है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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