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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २४७ सूत्रकृतांग में कहा गया है- “जो वचन शुद्ध है, भगवान की आज्ञा के अनुसार है, वह वचन पुण्य का साधन है।" हित, मित, पथ्य और सत्य वचन पुण्य का कारण है। दशवैकालिक में चार प्रकार के वचन प्रयोग बताए गए है ३१ १. सत्यभाषा २. असत्यभाषा ३. मिश्रभाषा और ४. व्यवहारभाषा। इसमें सत्यवचन पुण्य का कारण है। असत्य और मिश्रवचन पाप का कारण है। व्यवहारवचन का प्रयोग व्यावहारिक जीवन का साधन है, वह प्रसंगानुसार पुण्य का कारण भी हो सकता है और पाप का भी। ___ चार प्रकार के वचन में दो वचन त्याज्य है और दो वचन विवेकपूर्वक बोलने योग्य हैं। . देव, गुरु, धर्म की स्तुति, गुणीजनों के गुणों का वर्णन आदि वचनपुण्य है। मनपुण्य केवल स्वोपकारी है, परन्तु वचनपुण्य और कायपुण्य स्व तथा परदोनों का उपकारी है। ८. कायपुण्य - कायपुण्य दो प्रकार से उपार्जित किया जा सकता है। पहला आत्मकल्याण के लिए शरीर को संयम, तप, अनुष्ठान, ध्यान, त्याग, शील आदि के द्वारा काया पर संयम रखना कायपुण्य है। परोपकार के लिए, दूसरों की सहायता के लिए, दूसरों के प्राणों की रक्षा के लिए अपने शरीर को कष्ट देना अपनी सुख-सुविधाओं का त्याग करना कायपुण्य का दूसरा रूप है। । ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र ३२ में मेघकुमार का दृष्टांत आता है कि मेघकुमार का जीव हाथी के भव में एक खरगोश के प्राणों की रक्षा के लिए करुणा से प्रेरित होकर अपना पाँव तीन दिन-रात तक जमीन पर नहीं रखते हुए अधर में खड़ा रखता है। वह विचार करता है कि मेरा इतना भारी पाँव नीचे टिकते ही यह ४३०. .. "आणाइ सुद्धं वयणं पउंजे"। -सूत्रकृतांग दशवैकालिक -सातवाँ अध्ययन - वक्कसुद्धि गाथा (१-५) उक्षिप्त ज्ञात, प्रथम अध्ययन, सूत्र १४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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