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२४६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
५. वस्त्रपुण्य -
वस्त्रों का दान देना वस्त्रपुण्य कहलाता है। किसी त्यागी, व्रती साधु को मर्यादा के अनुसार वस्त्र देना, अथवा सामान्य जरूरतमंद विपत्तिग्रस्त व्यक्ति को वस्त्र देना वस्त्रपुण्य है।
महाकवि निरालाजी की करुणा के विषय में कई घटनाएँ प्रसिद्ध है। एक बार उन्हें किसी सभा में सम्मानित करके कीमती दुशाला ओढ़ाया गया। दुशाला
ओढ़कर जब निरालाजी जा रहे थे, तब मार्ग में उन्हे एक गरीब बुढ़िया सर्दी में ठिठुरते हुए दिखी। वह दुशाला उन्होंने उस बुढ़िया के निर्वस्त्र शरीर पर डाल दिया।
जब व्यक्ति के हृदय में करुणा का स्रोत बहता है, तब वह वस्तु देते समय यह विचार नहीं करता है कि वह वस्तु बहुमूल्य है या नवीन है आदि। ६. मनपुण्य -
जैन आचार्यों ने मन की परिभाषा दी है- 'संकल्प विकल्पात्मक मनः', जो हर क्षण विचारों में संकल्प-विकल्पों में उलझा रहता है, वह मन है। अब प्रश्न यह उठता है कि मन से पुण्य किस प्रकार कर सकते हैं? क्योंकि मन तो किसी को दान में दे नहीं सकते।
मनपुण्य का सबसे बड़ा साधन शुभचिंतन है। इसके लिए अनित्य आदि बारह भावनाएँ तथा मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थभावना का चिंतन करना, सभी जीवों के कल्याण की कामना करना आदि मनपूण्य कहलाता है। मन को अशुभभावों से हटाकर शुभभावों की ओर जोड़ना मनपुण्य है। ७. वचनपुण्य -
जो काम हजारों शिक्षकों से नहीं होता है, वही काम एक समयोपयोगी वचन से हो जाता है। बृहत्कल्पभाष्य में कहा गया है-“गुणवान व्यक्ति का एक ही वचन घी से प्रज्वलित दीपक की तरह चारों ओर प्रकाश फैला देता है।"२६ ।
अब प्रश्न यह उठता है कि किस प्रकार का वचनव्यवहारशुभ है और किस प्रकार का वचनव्यवहार अशुभ है?
४२६. "गुण सुट्टियस्स वयणं धय परिसित्तुत्व पावओ होई।"
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