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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २४५
३. लयणपुण्य -
लयन का अर्थ है- आश्रयस्थान, केन्द्र आदि। स्वयं के रहने के लिए भवन आदि का निर्माण करना लयणपुण्य नहीं है, क्योंकि अपने लिए पशु-पक्षी भी शीत, ताप, वर्षा आदि से बचने के लिए कोई न कोई आश्रयस्थान बना लेते हैं। आश्रयहीन, विपत्तिग्रस्त, भूकम्प आदि दुर्घटना से प्रभावित व्यक्तियों के संकट दूर करने के लिए उन्हें आश्रय देना, साथ ही ज्ञानप्राप्ति के लिए विद्यालय रोगनिवारण के लिए चिकित्सालय, तपस्या, साधना आदि के लिए उपाश्रय देना-यह सब लयनपुण्य है। जैन-आगमों में साधुओं को स्थान देने वाले को शय्यातर कहा गया है। शय्या, अर्थात् स्थान देने से जो तर जाए, वह शय्यातर कहलाता है।
___ माण्डवगढ़ में एक लाख महाजन के घर थे। वहाँ का ऐसा नियम था कि कोई भी परिवार बाहर से आता, तो वे लोग उसे प्रत्येक घर से एक रुपया और एक ईंट देते थे, जिससे वह भी उनके समान लखपति हो जाता-यह बात इतिहास प्रसिद्ध है। इन प्राचीन आदर्शों की प्रेरणा आज भी जीवंत है। हर जगह वृद्धाश्रम, अनाथाश्रम, सेवाश्रम तथा राजस्थान में जगह-जगह धर्मशालाएँ पांथागार आदि बने हुए हैं। ४. शयनपुण्य -
सोने, बैठने, ओढ़ने, बिछाने के साधनों का जिनके पास अभाव हो, इन वस्तुओं के बिना जो दुःखी हो, उनको निःस्वार्थभाव से ये साधन देना शयनपुण्य है। जैसे चिकित्सालय में रोगियों के लिए पलंग आदि तथा ओढ़ने-बिछाने के साधनों का दान करना; अथवा बाढ़, अग्नि प्रकोप, शीतप्रकोप, भूकंप आदि प्राकृतिक विपदाओं से ग्रस्त दीन-हीन, साधनहीन व्यक्तियों को करुणाभाव से, खाट, पलंग, बिस्तर आदि दान करना शयनपुण्य कर श्रेणी में आता है।
आचारांगसूत्र में दूसरे श्रुतस्कन्ध में बताया गया है कि मुनियों के योग्य स्थल उपाश्रय, शय्या सस्तारक पाट-चौकी आदि का प्रदान करना शय्यादान के अंतर्गत आता है। कईं करुणा से युक्त ऐसे पुण्यात्मा आज भी हैं, जो फुटपाथ पर सोए सर्दी में ठिठुरते दीन-दुखियों को देखकर चुपचाप रात को कंबल ओढ़ाकर आ जाते है।
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