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२०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
महापुरुष का स्थान जैन परम्परा में ठीक वही है जो वैदिक परम्परा में जगद्गुरु शंकराचार्य का है।
सर्वप्रथम हम उनके जीवन और व्यक्तित्व को प्रस्तुत करेंगे। उसके बाद उनके बहुआयामी कृतित्त्व का समीक्षात्मक विवरण दिया जाएगा।
गृहस्थ जीवन प्राचीन साहित्यकार एवं विद्वान, यशप्राप्ति की आकांक्षा से निर्लिप्त रहते हुए स्वान्तः सुखाय और लोक कल्याण की भावना से ही साहित्य सृजन करते थे। फलतः उनकी रचनाओं में प्रायः उनके जीवन सम्बन्धी तथ्यों के उल्लेख का अभाव है। अतः शोधकर्ताओं के लिए उनके जीवनवृत्त की जानकारी प्राप्त करना दुष्कर कार्य होता है। उपाध्याय यशोविजयजी भी इसके अपवाद नहीं है। यशोविजयजी के सम्बन्ध में उनके समकालीन मुनियों ने जो किए हैं, उनके द्वारा जो कुछ जानकारी प्राप्त होती है, वही हमारे । विवरण का आधार है। जन्म-समय -
उपाध्याय यशोविजयजी के जन्म वर्ष की विचारणा के लिए परस्पर भिन्न ऐसे दो अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रमाण हैं, किन्तु इनके मन्तव्य भिन्न-भिन्न होने के कारण निश्चयात्मक रूप से कुछ कह पाना संभव नहीं है।
(१) वि. सं. १६६३ में वस्त्र पर आलेखित मेरुपर्वत का चित्रपटा (२) यशोविजयजी के समकालीन मुनि कांतिविजयजी कृत
'सुजसवेलीभास' नामक रचना। विक्रम संवत १६६३ में यशोविजयजी के गुरु नयविजयजी ने स्वयं वस्त्रपट पर मेरुपर्वत का आलेखन किया था। यह चित्रपट आज दिन तक सुरक्षित है। इसकी पुष्पिका में दी गई जानकारी के अनुसार नयविजयजी ने आचार्य विजयसेनसूरि के कणसागर नामक गाँव में रहकर सं. १६६३ में स्वयं के शिष्य जसविजयजी (यशविजयजी) के लिए इस पट का आलेखन किया। पुष्पिका में लिखे अनुसार कल्याणविजयजी के शिष्य नयविजयजी उस समय गणि और पंन्यास के पद पर थे, किन्तु जिसके लिए यह पट बनाया, उन यशोविजयजी का भी उसमें 'गणि' तरीके से उल्लेख है।
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