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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १६ प्रथम अध्याय उपाध्याय यशोविजयजी का व्यक्तित्त्व एवं कृतित्त्व जैसे आकाश के असंख्य तारे अपनी आभा निरन्तर बिखेरते हैं, वैसे ही भगवान महावीर की परम्परा के अनेक विद्वान आचार्यों एवं श्रमणों की कृतियों की आभा से भारतीय ज्ञानाकाश आभासित है। इन ज्ञानसाधकों के समूह में आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य हरिभद्र और आचार्य हेमचन्द्र आदि ऐसे व्यक्तित्त्व हैं, जिन्हें जैन साहित्याकाश के सूर्य-चन्द्र की संज्ञा दी जा सकती है। उपाध्याय यशोविजयजी भी ऐसे ही अनुपम मनीषी थे। उन्हें हरिभद्रसूरि तथा हेमचन्द्राचार्य की परम्परा का अंतिम बहुमुखी प्रतिभावान विद्वान् माना जाता है। यशोविजयजी ने अपना समस्त जीवन विविध शास्त्रों के अध्ययन, चिन्तन और सृजन में लगा दिया। यशोविजयजी ने अनेक विषयों पर अपनी कलम चलाई। उनकी व्यापक दृष्टि जैनदर्शन की चर्चा तक ही सीमित नहीं रही, अन्य दर्शनों की चर्चा भी उन्होंने उतने ही आधिकारिक रूप से की है। यशोविजयजी ने अपने अध्ययनकाल में पारम्परिक अध्ययन के साथ उस समय अन्य परम्पराओं में प्रचलित नवीन न्याय का गहन अध्ययन भी किया था। इसके फलस्वरूप उन्होंने जैनदर्शन का तर्क तथा नव्यन्याय पर आधारित जितना प्रभावी विश्लेषण तथा प्रतिपादन किया उतना न तो उनके पूर्ववर्ती जैन आचार्यों ने किया और न ही परवर्ती कोई आचार्य ही कर पाया है। योग-विद्या विषयक उनकी दृष्टि इतनी विशाल थी कि वे अपने अध्ययन को अपने सम्प्रदाय के ग्रन्थों तक सीमित नहीं रख सके। अतएव उन्होंने पातंजल योगसूत्र पर भी अपना विवेचन लिखा। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा के सूक्ष्मप्रज्ञा विद्यानन्द के कठिनतम ग्रन्थ अष्टसहस्त्री पर व्याख्या भी लिखी। यशोविजयजी जैनशासन के उन परम प्रभावक महापुरुषों में अन्तिम थे जिनके द्वारा कथित अथवा लिखित शब्द प्रमाणस्वरूप माना जाता है। ये युगप्रवर्तक महापुरुष थे, इसमें कोई सन्देह नहीं है। पण्डित सुखलालजी के इस मंतव्य में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि इस क्रान्तिकारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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