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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / २४३ श्रेणिक ने भगवान से पूछा - "हे भगवन् ! यह दुन्दुभी किस कारण से बज रही है?” तब भगवान ने कहा- “ प्रसन्नचंद्रराजर्षि को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है । " इस दृष्टान्त से यह स्पष्ट होता है कि बाहर की वृत्ति शुभ दिखाई देने पर भी मन के अशुभ परिणाम के कारण प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने सातवीं नरक तक जाने के कर्मदलिक एकत्रत कर लिए और जैसे ही परिणाम की धारा बदली, शुभध्यान में आए वैसे ही केवलज्ञान भी प्राप्त कर लिया। इस प्रकार शुभव्यवहार और अशुभ व्यवहार प्रमुख रूप से मन की वृत्तियों पर निर्भर करता है। उत्तराध्ययन आदि जैनग्रन्थों में बंधन का मुख्य कारण राग और द्वेष की वृत्तियाँ ही मानी गईं हैं। दूसरों के रक्षण और सम्पोषण के प्रयत्नों में चाहे किसी सीमा तक हिंसा की बाह्य प्रवृत्ति भी हो सकती है, किन्तु यह यथार्थरूप में अशुभबंध का हेतु नहीं है । जैन ग्रन्थों में इस प्रकार के कई दृष्टांत आते हैं, जिसमें शीलधर्म की रक्षा के लिए जैन मुनियों को बाह्यरूप से हिंसक प्रवृत्ति भी अपनाना पड़ी ।' ४२६ जैनाचार्य कालकसूरि ने साध्वी सरस्वती के शील की तथा धर्म की रक्षा के लिए अवधूत का वेश धारण कर उज्जैन के राजा गर्दभिल्ल से युद्ध करके उसकी हत्या की । विष्णुकुमार मुनि ने भी पूरे जैनसंघ की रक्षा के लिए नमुचि की हत्या की । यहाँ बाह्य प्रवृत्ति हिंसा की है, परंतु भाव में हिंसा नहीं है, भाव तो किसी की रक्षा का है। यहाँ हिंसा अल्प है और पुण्यबंध अधिक हैं, इसलिए यह प्रवृत्ति शुभ ही कहलाएगी। कालसौरिक कसाई जो रोज ५०० पाड़ों का वध करता था, श्रेणिक ने सिर्फ एक दिन के लिए उसे हिंसा बंद करने की आज्ञा दी। वह नहीं माना, श्रेणिक ने उसे कुएँ में उतार दिया और यह सोचकर खुश हुआ कि मैंने एक दिन की हिंसा बंद करवा दी, किंतु कुएं में भी वह कसाई मिट्टी के पाड़े बनाकर मारता रहा । श्रेणिक उसके द्वारा होने वाली द्रव्यहिंसा पर रोक लगा. सका, किंतु भावहिंसा नहीं रोक सका। उसने द्रव्य से हिंसा नहीं करते हुए भी भाव से उतने ही अशुभकार्य का बंध कर लिया। इस प्रकार स्पष्ट है कि जैनधर्म में भी शुभता और अशुभता का आधार मन की वृत्तियाँ ही हैं, फिर भी उसमें बाह्यक्रिया उपेक्षित नहीं है। निश्चयदृष्टि से तो भाव ही कर्मों की शुभता - अशुभता का निर्णायक है, फिर भी व्यवहार की दृष्टि ४२६ रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाई - मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाइ-मरणं वयंति ॥ ७ ॥ - प्रमादस्थान, अध्ययन, उत्तराध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only ३२वाँ www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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