SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४२/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री कर्ता के अभिप्राय को ही शुभता-अशुभता का आधार माना गया है। शुभ-अशुभ कर्म का मुख्य आधार मनुष्य की मनोवृत्तियाँ हैं।"१२३ जैन-आचार्यों द्वारा कहा भी गया है कि 'मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः' अर्थात् मनुष्य का मन ही शुभ तथा अशुभ बंध का कारण होता है और मन ही मोक्ष का कारण है। आवश्यकचूर्णि९२४ तथा निशीथसूत्रचूर्णि२५ में प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का दृष्टान्त आता है। इसके अनुसार पोतनपुर नगर में प्रसन्नचन्द्र नामक राजा ने वीरप्रभु के पास दीक्षा स्वीकार कर ली थी। वे महावीर के साथ विहार करते हुए राजगृही नगरी मे आए और वहाँ आकर खड्गासन में कायोत्सर्ग कर ध्यान में स्थिर हो गए। राजा श्रेणिक सैन्यसहित महावीर प्रभु को वन्दना करने के लिए उसी रास्ते से निकले। उस समय दुर्मख नामक दूत ने प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को देखकर कहा- “अरे यह तो वही कायर है, जिसने अपने निर्बल पुत्र को राज्यसिंहासन पर बैठाकर स्वयं शत्रुओं के भय से दीक्षा अंगीकार कर ली। इसके कारण से ही राजपुत्र तथा प्रजा शत्रुओं से पीड़ित हो रही है।" जैसे ही दुर्मख के ये शब्द राजर्षि के कर्णपटल से टकराए, वैसे ही वे संयम की मर्यादा भूलकर कुपित होते हुए चिन्तन करने लगे- अरे! कौन मेरे जीवित होते हुए मेरे राज्य पर आक्रमण कर सकता है? वे तन से कायोत्सर्ग में स्थिर रहे, किन्तु मन उनका भीषण युद्ध करने लगा। इधर ध्यानमग्न प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को देखकर श्रेणिक अहोभाव से भर गया और उसने भगवान से पूछा “ध्यान में निरत प्रसन्नचन्द्रराजर्षि की अभी मृत्यु हो जाए, तो वे कहाँ उत्पन्न होंगे? प्रभु ने कहा “सातवीं नरक में उत्पन्न होंगे।" इस पर श्रेणिक विचार करने लगा कि शायद मैंने ठीक से नहीं सुना। वह बार-बार भगवान् से पूछने लगा। इधर मन द्वारा युद्ध करते हुए राजर्षि के सारे शस्त्र खत्म हो गए, तब उन्होंने मुकुट द्वारा शत्रु को मारने की इच्छा से जैसे ही हाथ मस्तक पर लगाया, लोच किए हुए मस्तक का स्पर्श होते ही उनकी चेतना जाग्रत हुई- “अरे! मैं श्रमण होकर इस तरह युद्ध कर रहा हूँ।" इस प्रकार पश्चाताप करते-करते निर्मल अध्यवसाय के कारण उन्होंने शुक्लध्यान को प्राप्त किया, जिससे उनको उसी समय केवलज्ञान प्राप्त हुआ। देवों ने दुन्दुभिनाद किया। दुन्दुभि को सुनकर ४२३ जैनकर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण; डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रंथ - ग्रंथ भगवद्गीता, १८/१७, धम्मपद, २४६, सूत्रकृतांग, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, आद्रकसंवाद २/६ आवश्यकचूर्णि - (भाग १, ४५६) निशीथचूर्णि (भाग ४, पृ. ६८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy