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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २४१ अभिधानराजेन्द्रकोष में 'पुण्य' की व्याख्या करते हुए कहा गया है- “जो आत्मा को शुभ करता है, पुनीत या पवित्र करता है, वह पुण्य है।”९२२
शम व्यवहार या शभकर्म किसे कहते हैं? शभकार्य करने के साधन या मार्ग क्या हैं? कई तरह की जिज्ञासाएँ उठती हैं। इन जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए सर्वप्रथम हमें यह जानना होगा कि शुभ व्यवहार किसे कहते हैं?
जिस प्रकार के व्यवहार से हमें कष्ट होता है, या जो व्यवहार हमें अप्रिय लगता है, उस प्रकार का व्यवहार हमें दूसरे के प्रति नहीं करना तथा जैसा व्यवहार या आचरण हमको प्रिय लगता है, अनुकूल लगता है, वैसा व्यवहार दूसरे के प्रति करना-यही शुभव्यवहार या शुभआचरण है। इससे विपरीत अशुभव्यवहार होता है। सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि ही व्यवहार के शुभत्व का प्रमाण है। योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्य ने कहा- “आत्मवत सर्वभूतेषु सुखदुःखे प्रियाप्रिये।" जैसे स्वयं को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, वैसे ही सभी जीवों को सुख प्रिय
और दुःख अप्रिय है, इसलिए किसी की भी राह में काँटे नहीं बिछाना चाहिए, अर्थात् किसी का अहित हो-ऐसा आचरण नहीं करना चाहिए।
. अब प्रश्न यह आता है कि यह कर्म शुभ है या अशुभ-यह किस प्रकार सिद्ध करेंगे? इसका आधार क्या है? डॉ. सागरमल जैन से 'जैनकर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण' नामक लेख में यह स्पष्ट किया है कि "कर्म का बाह्यस्वरूप, अर्थात् समाज पर उसका प्रभाव तथा कर्ता का अभिप्राय इन दोनों में कौन सा आधार यथार्थ है यह विवाद का विषय रहा है। गीता और बौद्धदर्शन में कर्ता के अभिप्राय को ही कृत्यों की शुभता अशुभता का सच्चा आधार माना गया है। गीता स्पष्ट रूप से कहती है कि जिसमें कर्त्तत्त्व भाव नहीं है, जिसकी बुद्धि निर्लिप्त है, वह इन सब लोगों को मार डाले, तो भी यह समझना चाहिए कि उसने न तो किसी को मारा है और न वह उस कर्म से बंधन को प्राप्त होता हैं। धम्मपद में बुद्धवचन भी इस प्रकार ही है। उसमें कहा गया है कि- नैष्कर्म्य स्थिति को प्राप्त ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजाओं को एवं प्रजासहित राष्ट्र को मारकर भी निष्पाप होकर जाता है। इस प्रकार बौद्धदर्शन में कर्ता के अभिप्राय को ही पुण्य-पाप का आधार माना गया है। इसका प्रमाण सूत्रकृतांग के आर्द्रकसंवाद में भी मिलता है। जहाँ तक जैन-मान्यता का प्रश्न है, विद्वानों के अनुसार उसमें भी
'पुण' शुभे इति वचनात् पुण्यति शुभी करोति, पुनाति वा पवित्रीकरोत्यात्मानमिति पुण्यम् - अभिधान राजेन्द्रकोष, भाग -५, पृ. ६६१
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