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२४० / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
मोक्षाभिलाषा अखण्ड रहती है। भौतिक फलापेक्षा से उनकी मोक्षाभिलाषा बहुत तीव्र होती है। भौतिक फलापेक्षा तो कामचलाऊ तथा प्रासंगिक होती है, जबकि मोक्षाभिलाषा सतत रहती है, इसलिए उनका अनुष्ठान अमृतानुष्ठान ही बनता है ।
इस प्रकार पाँच अनुष्ठानों में प्रथम तीन अनुष्ठान असत्, अर्थात् अशुद्ध हैं और अन्तिम दो अनुष्ठान शुद्ध हैं। इसमें भी अमृतानुष्ठान मोह के उग्र विष के नाश का कारण होने से सर्वश्रेष्ठ है।
विषानुष्ठान और गरलानुष्ठान में विपरीत प्रणिधान होने से, अथवा अननुष्ठान में प्रणिधानशून्यता होने से उनमें प्रणिधानादि आशय नहीं होते हैं, अतः ये अनुष्ठान तुच्छ हैं, हेय हैं। तद्हेतु अनुष्ठान परंपरा से तथा अमृतानुष्ठान साक्षात् रूप में जीव को मोक्ष के साथ जोड़ने वाले होने से सद्योगरूप है और आदर करने योग्य हैं।
अविरतसम्यग्दृष्टि और अपुनर्बन्धक जीवों को विरति नहीं होने से अमृतानुष्ठान संभावित नहीं है, लेकिन तद्हेतु - अनुष्ठान संभवित है। देशविरतिधर को अमृतानुष्ठान होता है तथा सर्वविरति धर को परमामृतानुष्ठान होता है। यह बात योगविंशिका की वृत्ति में उ. यशोविजयजी ने कही है।
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शुभ व्यवहार और अशुभ व्यवहार
प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है, दुःख कोई भी नहीं चाहता है। इच्छित सुखों की साधन-सामग्री ऊपर से नहीं टपकती है, न ही इन्हें ईश्वर प्रदान करते हैं। व्यक्ति के शुभ कर्मों या पुरुषार्थ से ही पुण्य का उपार्जन होता है और उसी से मनुष्यजन्म, आर्यदेश, संस्कारी कुल, पंचेन्द्रिय की पूर्णता, निरोगी काया, सद्गुरु का योग, धर्मश्रवण की रुचि आदि सर्वप्रकार की अनुकूलता प्राप्त होती है। इसके विपरीत तिर्यंचगति, नरकगति के दुःख, मनुष्यजन्म में असंस्कारी कुल, शारीरिक और मानसिक यातनाएं, विभिन्न प्रकार की प्रतिकूलता अशुभव्यवहार से उपार्जित पाप के उदय से प्राप्त होती है। उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मसार में शुभकर्म को पुण्य तथा अशुभकर्म को पाप कहा है।
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योगविंशिका की वृत्ति, पृ. १७६
उ. यशोविजयजी
पुण्यकर्म शुभं प्रोक्तमशुभं पापमुच्यते । -आत्मनिश्चयाधिकार, अध्यात्मसार, उ.
यशोविजयजी
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