SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २३६ ५. अमृतानुष्ठान : पाँचों प्रकार के अनुष्ठानों में सर्वश्रेष्ठ अनुष्ठान अमृतानुष्ठान है। यह अनुष्ठान जहाँ मरण नहीं- ऐसी अमरण अवस्था का, अर्थात् मोक्ष का कारण है, इसलिए यह अमृतानुष्ठान है। यशोविजयजी ने अमृतानुष्ठान के छः लक्षण बताए हैं -१. जिनेश्वर की आज्ञा के प्रति अचल श्रद्धा जैसे सुलसा श्राविका आदि के समान २. चित्त की शुद्धि ३. तीव्र वैराग्य (संवेग) और मोक्ष की प्राप्ति अभिलाषा ४. शास्त्रार्थ का सम्यक् आलोचन ५. अनुष्ठान में दृढ़ प्राणिधान, अर्थात् चित्त की एकाग्रता ६. कालादिक अंगों का अविपर्यास ८, अर्थात् आवश्यकादि धर्मक्रियाओं को जिस समय पर करने का कहा हैं, उन्हें उसी समय पर करना। अमृतानुष्ठान करने वाले व्यक्ति में प्रत्येक धर्मक्रिया में उत्साह होता है, स्वस्थता होती है और अप्रमत्तता होती है। किसी भी कार्य में वह उपयोगशून्य नहीं होता है। यशोविजयजी के अध्यात्मसार में दी गई यह व्याख्या अमृतानुष्ठान की उत्कष्ट व्याख्या है, क्योंकि विषम संयोगों में आवश्यकादि क्रियाओं का जो समय शास्त्रों में बताया है, उसके अनुसार न हो-यह संभव है। परिस्थितिवश शास्त्राभ्यास न भी हो, किन्तु जितना करना शक्य है, उतना प्रयत्न तो अवश्य होता है। आ. हरिभद्रसूरि ने योगबिन्दु में अमृतानुष्ठान की जो व्याख्या दी है, वह सर्वव्यापी है। उन्होंने व्याख्या करते हुए कहा है- “जिस अनुष्ठान के साथ साधक के मन में मोक्षोन्मुख आत्मभाव तथा भववैराग्य की अनुभूति जुड़ी रहती है और साधक यह आस्था लिए रहता है कि यह अर्हत् प्रतिपादित है, उसे अमृतानुष्ठान कहते हैं।"१६ अमृतानुष्ठान में आंशिक फलापेक्षा रहती है, किंतु मोक्षाभिलाषा ही मुख्य होती है। श्रीपाल जैसे विशिष्ट भूमिका में रहे हुए जीवों को भी कभी व्यक्तरूप में भौतिक फलाकांक्षा दिखाई देती है, किन्तु उनका संवेग तीव्र होता है और ४१५ जैनीमाज्ञां पुरस्कृत्य प्रवृत्तं चित्तशुद्धितः। संवेगगर्भमत्यन्तममृतं तद्विदो विदुः।।२६ ।। शास्त्रार्थालोचनं सम्यक्प्रणिधानं च कर्मणि। कालाधंगाविपर्यासोऽमृतानुष्ठान लक्षणम् ।।२७।। -सद्नुष्ठान अधिकार- अध्यात्मसार- उ. यशोविजयजी जिनोदितमिति त्वाहूर्भावसारमद पुनः। संवेगगर्भमत्यन्तममृतं मुनिपुङ्गवाः ।।१६० ।। -योगबिन्दु - आ. हरिभद्रसूरि ४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy