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२३८ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
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है", इसलिए उनके अनुष्ठान में भी भेद होना स्वाभाविक है। चरमपुद्गलावर्तवर्ती को सहज रूप में कर्ममल की अल्पता होती है तथा भावों की शुद्धि होती है। उसके फलस्वरूप प्राणियों के जीवन में शुभ अनुष्ठान क्रियान्वित होने लगता है, इसलिए उ. यशोविजयजी ने इसे धर्म का यौवनकाल कहा है। इसमें सत्क्रिया के प्रति राग होता है।
उन्होंने इस अनुष्ठान को एक वृक्ष का रूपक दिया है। जिस प्रकार वृक्ष में बीज, अंकुर, स्कंध, पत्र, पुष्प और फल आदि अंग होते हैं, उसी प्रकार शुद्ध अनुष्ठान करने वाले मनुष्यों को देखकर उनके प्रति बहुमान और प्रशंसा व्यक्त करते हुए शुद्ध क्रिया करने की जो इच्छा होती है, वह तद्हेतु अनुष्ठान करने वाले जीव का बीजरूप प्रथम लक्षण है । वह शुद्धिक्रिया कब करेगा? बार-बार इस प्रकार की भावना होने से, परिणाम की निर्मलता से जो अनुबंध होता है, वह अंकुर रूप में है तथा उसके बाद यह शुद्ध किस प्रकार हो सकती है, इसका चिंतन-मनन करना तद्हेतु वृक्ष का स्कंधरूप है। इस अनुष्ठान में जो-जो सत्क्रियाएँ करने में आती हैं, वे छोटे-बड़े पत्ते माने जा सकते हैं। उसके बाद किसी सद्गुरु का संयोग होने पर जो बोध होता हैं, उनके मार्गदर्शन में जो शास्त्राभ्यास आदि होते हैं- ये इस अनुष्ठान के पुष्प हैं। सद्गुरु का संयोग होने पर जो बोध हाने के बाद सत्देशना सुनने से उसके मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का क्षयोपशम होता है और सम्यत्वरूपी शुद्ध भावधर्म की प्राप्ति होती है, यही तद्हेतु अनुष्ठान का फल रूप है।' यह फल अवश्य मोक्ष को प्राप्त कराने वाला होता है । ( तद्हेतु अनुष्ठान में भी भौतिकफलाभिलाषा तो तीव्र रहती है, किंतु मुक्ति के प्रति राग भी होता है, इसलिए यह अभव्य में नहीं होता है | )
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एवं च कर्तृभेदेन चरमेऽन्यादृशं स्थितम् ।
पुद्गलानां परावर्ते गुरुदेवादिपूजनम् ।।१६१ । ।- योगबिन्दु - हरिभद्रसूरि बीजं चेह जनान् दृष्टवा शुद्धानुष्ठानकारिणः । बहुमानप्रशंसायां चिकीर्षा शुद्धगोचरा ।। २१ ।।
तस्याएवानुबंधश्चाकलंकः ीर्त्यतेऽड़कुरः । तद्धेत्वन्वेषणा चित्ता स्कंधकल्चा च वर्णिता ।। २२ ।।
प्रवृत्तिस्तेषु चित्रा च पत्रादिसदृशी मता । पुष्पं च गुरुयोगादिहेतुसंपत्तिलक्षणम् ।।२३ ।। भावधर्मस्य संपत्तिर्या च सद्देशनादिना । फलं तदत्र विज्ञेयं नियमान्मोक्षसाधकम् ।। २४ ।। - सदनुष्ठान अधिकार - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी
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