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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / २३७
कई बार आवश्यक आदि क्रिया करते समय व्यक्ति सूत्र, अर्थ, विधि आदि कुछ नहीं जानता है, नहीं करने के भाव होते हैं, फिर भी गतानुगतिकता से, लक्ष्य बिना कई लोग इन क्रियाओं से जुड़े रहते हैं। उ. यशोविजयजी कहते हैं कि तीर्थ - उच्छेद के भय से अशुद्ध क्रिया का आदर करने में आए तो, गतानुगतिकत्व को लेकर शुद्ध क्रिया का लोप हो जाएगा, क्योंकि फिर अशुद्ध क्रिया का आदर करने से 'यही सत्य'- ऐसा भ्रम होगा और इसलिए ही लोग अशुद्ध क्रिया करते हों, तो भी आदर, महिमा और आग्रह तो शास्त्रविहित शुद्ध क्रिया का ही होना चाहिए।
अननुष्ठान से मात्र अकामनिर्जरा होती है, इसलिए सूत्रार्थरहित, अज्ञान से युक्त गतानुगतिक, ओघसंज्ञा ओर लोकसंज्ञा से कराए गए अनुष्ठान अननुष्ठान कहलाते हैं और यह मोक्षमार्ग के लिए उपकारक नहीं होते है, इसलिए इसे भी अशुद्ध क्रिया या अशुद्ध अनुष्ठान कहते हैं।
४. तद्हेतु अनुष्ठान :
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मोक्ष की प्राप्ति के लिए किया गया अनुष्ठान तद्हेतु - अनुष्ठान कहलाता है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- “मार्गानुसारी जीवों को सदनुष्ठान के प्रति राग होने से तहेतु-अनुष्ठान प्राप्त होता है। यह अनाभोगादि से युक्त चरमावर्तकाल में प्राप्त होता है । ” तद्हेतु अनुष्ठान में अनाभोगिक, अर्थात् अनुपयोग, अनादर, विस्मृति, आशंका आदि दोष नहीं होते हैं। मोक्षमार्ग की अभिलाषा रखने वाले को चरमावर्तकाल में यह तद्हेतु अनुष्ठान प्राप्त होता है। चरमावर्त में आने के बाद आत्मा की आध्यात्मिक विकास-यात्रा प्रारंभ हो जाती है।
आ. हरिभद्रसूरि ने योगबिन्दु में कहा है- “अन्तिम पुद्गलावर्त में गुरुपूजा, देवपूजा आदि जो अनुष्ठान किए जाते हैं वे तथा अन्तिम पुद्गलावर्त से पूर्ववर्ती आवतों में जो अनुष्ठान किए जाते हैं, वे परस्पर भिन्न होते हैं। दोनों के अनुष्ठाताओं में मूलतः भेद होता है। एक संसार में पौद्गलिक सुखों में अत्यंत आसक्त होता है, तो दूसरा संसार में रहते हुए भी धर्म की ओर उन्मुख रहता
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सद्नुष्ठानरागेण तद्धेतु मार्गगामिनाम् । एतच्च चरमावर्ते ऽनाभोगादेर्विना भवेत् ।।१७।। - सदनुष्ठान अधिकार - १०, अध्यात्मवाद, उ. यशोविजयजी
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