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________________ २३६ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री गीता में 'श्रीकृष्ण' ने भी कहा है- “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन् ” अर्थात् कर्म करो, लेकिन निष्काम भाव से करो, फल की इच्छा मत करो। इस प्रकार गीता में भी विषानुष्ठान और गरलानुष्ठान का निषेध है। ३. अननुष्ठान : " प्रणिधान आदि के ४१३ इसे तीसरे प्रकार का अनुष्ठान अननुष्ठान कहलाता है । अभाव से अध्यवसायरहित तथा संमूर्च्छिम की प्रवृत्ति के समान जो क्रिया की जाती है, या जो अनुष्ठान किया जाता है, वह अनअनुष्ठान कहलाता है । " अन्योन्यानुष्ठान भी कहते है । प्रणिधान यानी मन-वचन काया की एकाग्रता | कोई भी क्रिया एकाग्रता के अभाव में जड़ या यंत्रवत् हो जाती है। उसमें भूल होने की संभावना भी रहती है। इस अनुष्ठान में प्राणिधान के अलावा क्रिया में, बहुमान, उत्साह, आदर, पुरुषार्थ आदि का भी अभाव रहता है। आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लक्ष्य बिना, अध्यवसाय से रहित यह क्रिया संमूच्छिम के समान होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि जिसको मन ही नहीं है, ऐसे संमूच्छिम जीव क्रिया करें और मन वाले होने पर भी मन बिना क्रिया करें- इन दोनों में कुछ खास अन्तर नहीं होता है, अर्थात् उनकी क्रिया संमूच्छिम जीवों की प्रवृत्ति के समान रहती है। अनुष्ठान प्रकार की होने वाली धर्मक्रियाओं के उ. यशोविजयजी ने दो कारण बताए हैं- १. सामान्य ज्ञानरूप ओघसंज्ञा २. निर्दोष शास्त्रसिद्धान्त के ज्ञान के बिना लोकसंज्ञा । ४१४ दुनिया में कितनी धर्मप्रवृत्ति ओघसंज्ञा से होती रहती है, इसमें व्यक्ति को गहरी समझ नहीं होती है। ओघसंज्ञा से अनुष्ठान करने वाले के लिए सूत्र में या शास्त्र में क्या कहा है? वह यह नहीं जानता है, उसको जानने की इच्छा भी नहीं होती है और वह गुरु के मार्गनिर्देशन की अपेक्षा नहीं रखता है। वह अपनी मति के अनुसार क्रिया करता है और क्रिया भावविहीन होती है । लोकसंज्ञा में, बहुत से लोग विभिन्न धर्मक्रियाएं करते हैं, इसलिए इन्हें करना, अथवा परंपरा से ज्येष्ठ लोग करते आए हैं, इसलिए इन्हें करना, इस प्रकार गतानुगतिक देखादेखी से होती उपयोगशून्य प्रवृत्ति लोकसंज्ञा वाली प्रवृत्ति है। ४१३ प्रणिधानाद्यभावेन कर्मानध्यवसायिनः संमूर्च्छिमप्रवृत्याभमननुष्ठानमुच्यते ।।८।। सदनुष्ठान अधिकार - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी ओधसंज्ञाऽत्र सामान्य ४१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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