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२३४/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
परिणाम में अधोगति में जाना पड़ेगा; अतः पौद्गलिक सुख की प्राप्ति के लिए जो धार्मिक क्रियाएँ करता है, वह वास्तव में कानी कौड़ी के लिए लाखों स्वर्णमुद्राएँ गवाँ देता है। यही कारण है कि विषानुष्ठान को अशुद्ध अनुष्ठान कहते हैं। २. गरानुष्ठान :
विषानुष्ठान की तरह गरानुष्ठान भी अशुद्ध ही है। विषानुष्ठान ऐहिक सुख की कामना से किया जाता है और गरानुष्ठान पारलौकिक भोगोपभोग सुख की प्राप्ति के लिए किया जाता है।
यशोविजयजी कहते हैं- “जीव अपने पुण्यकर्म का फल पूरा होने पर पुनः कालान्तर में क्षय को प्राप्त वाला होने वाले दिव्यभोगों की अभिलाषा से जो व्रत अनुष्ठान करता है, वह गरानुष्ठान कहलाता है।"70
बीज बोए बिना फल की प्राप्ति नहीं होती है। यह निश्चित है कि जब तक व्यक्ति प्रयत्न नहीं करेगा, त्याग नहीं करेगा, कष्ट नही उठाएगा, तब तक उसको सुख या पुण्यफल की प्राप्ति नहीं हो सकती है, अतः देवगति आदि के सुखभोग भोगने के लिए, या चक्रवर्ती वासुदेव आदि पदवियों को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति जो तप, जप, गुरुभक्ति, जिनभक्ति आदि धर्मक्रियाएँ करता है, वे सभी क्रियाएँ गरानुष्ठान कहलाती हैं। विष तो तत्काल प्राणों को हरण कर लेता है, किन्तु गरल वह 'धीमा जहर' (Slow Poison) है, जो कालान्तर में व्यक्ति के प्राणों का हरण करता है। इस प्रकार की धर्मक्रियाओं से पुण्य का उपार्जन होता है। यह पापानुबंधी पुण्य होता है। इसके फल के रूप में देवगति आदि के सुख-भोग प्राप्त हो जाते हैं, किंतु इन भोगों को भोगते समय बहुत आसक्ति होती है। चित्त की शुद्धि नष्ट हो जाती है और जीव भयंकर पापकर्म करके दुर्गति में चला जाता है। पुण्य का क्षय होने पर वह अधोगति का मेहमान बन जाता है। मकड़ी अपना जाला बनाती है और स्वयं ही उसमें फँस जाती है और अपनी जान गवाँ देती है, उसी प्रकार गरलानुष्ठान वाला स्वयं ही प्राप्त हुए भोगों के जाल में फँस जाता है और उससे निकल नहीं पाता है तथा दुर्गति में चला जाता है। अतः विषानुष्ठान और गरलानुष्ठान करने वाले व्यक्ति का भवभ्रमण बढ़ जाता है। सामान्य जीव का लक्ष्य स्वरूपप्राप्ति का या मोक्षप्राप्ति का नहीं रहता है,
दिव्यभोगाभिलाषेण कालान्तरपरिक्षयात् । स्वादृष्टफलसंपूर्तेर्गरानुष्ठानमुच्यते ।।५।। सदनुष्ठान अधिकार- अध्यात्मसार- उ. यशोविजयजी
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