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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / २३३
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आकांक्षा (निदान) आदि के द्वारा दूषित कर देता है। पंचाशक में हरिभद्रसूरि ने कहा है- “जिनभवन निर्माण आदि धार्मिक अनुष्ठान निर्मल आशय से भावपूर्वक करने से वे अनुष्ठान सर्वविरति का कारण बनते हैं। यदि वे धार्मिक अनुष्ठान इहलोक या परलोक में भौतिक सुख पाने के लिए किए जाएँ, तो वे फलाकांक्षा ( निदान) से युक्त होने के कारण दूषित बन जाते हैं । " कई लोग मान-सम्मान पाने के लिए अच्छे आहार के लिए, वस्त्रादि उपकरणों के लिए, ऋद्धि-समृद्धि को प्राप्त करने के लिए गुरुसेवा, जिनभक्ति, व्रत, तप आदि धार्मिक क्रियाएँ करते हैं। मनुष्य की इच्छाओं, आकांक्षाओं का कोई अन्त नहीं है । दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा के अभाव में जीव तात्कालिक लोभ का विचार पहले करता है। वह अपनी आत्मा के हित-अहित का विचार नहीं करता है। इस प्रकार की धर्मक्रियाएँ चित्त की निर्मलवृत्ति को नष्ट कर देती हैं, इसलिए इस अनुष्ठान को विषानुष्ठान कहा गया है । उ. यशोविजयजी कहते हैं- “जिस प्रकार विष का भक्षण करने से तत्काल मृत्यु हो जाती है, उसी प्रकार ऐहिक भोगों की आकांक्षा से जीव का निर्मल चित्त दूषित हो जाता है । " यशोविजयजी ने दो प्रकार के विष बताएं हैं। स्थावरविष जैसे- अफीम आदि और जंगमविष जैसे सर्प, बिच्छु आदि का विष । दोनों प्रकार में से कोई भी विष का भक्षण करने से व्यक्ति की जिस प्रकार मृत्यु हो जाती है, उसी प्रकार सकामवृत्ति से दृढ़ आसक्ति से की गई धार्मिक क्रियाएँ भी विष का काम करती हैं और मोक्षमार्ग से दूर कर देती है । उ. यशोविजयजी सवासो गाथा के स्तवन में कहते हैं- “अध्यात्म बिना की गई क्रियाएँ शरीर के मेल के समान तुच्छ बन जाती है।"
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भोगों में तृप्ति नहीं है और जड़ वस्तुओं में कहीं भी सुख नहीं है। भोगों में जितनी आसक्ति होगी, उतनी ही आत्मा अपने स्वरूप से दूर रहेगी। आत्मा जितनी अपने स्वरूप से दूर रहेगी, उतनी ही पाप की वृद्धि होगी और
अध्यात्मविण जे क्रिया तनुमल तोले।
ममकारादिक योग थी ऐम ज्ञानी बोले। ३/१२
४०८ (अ) स्तवविधि पंचाशक -६/४, पंचाशक प्रकरण - हरिभद्रसूरि ( ब ) आचारांगनिर्युक्ति
- ३६ गाथा
स्थावरं जंगमं चापि तत्क्षणं भक्षितं विषम्
यथाहन्ति तथेदं सच्चित्तमैहिक भोगतः । । ४ । । सदनुष्ठान अधिकार - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी
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