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________________ २३२/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री १. विषानुष्ठान २. गरानुष्ठान ३. अन्-अनुष्ठान ४. तद्हेतु अनुष्ठान ५. अमृतानुष्ठान सर्वज्ञदर्शित सर्व अनुष्ठान स्वरूपतः तो सत् ही हैं, उनमें सत् और असदनुष्ठान का जो भेद है, वह स्वरूपतः नहीं, किन्तु फलतः या हेतु की अपेक्षा से है। हरिभद्रसूरि ने योगबिन्दु नामक ग्रंथ में कहा है कि एक ही अनुष्ठान कर्ता के भेद से भिन्न-भिन्न प्रकार का हो जाता है। जैसे एक ही भोज्यपदार्थ एक रोगी व्यक्ति सेवन करे और उसे ही एक स्वस्थ व्यक्ति सेवन करे, तो भोज्य पदार्थ की परिणति एक जैसी नहीं होती है, भिन्न-भिन्न होती है, इसलिए कर्ता के आधार पर शुद्धक्रिया और अशुद्धक्रिया का भेद होता है।"१०६ १. . विषानुष्ठान : मन में सहज जिज्ञासा होती है कि कोई भी अनुष्ठान विषानुष्ठान में किस प्रकार रूपान्तरित हो जाता है? या किन्हीं अनुष्ठानों को विषानुष्ठान कहने का कारण क्या? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उ. यशोविजयजी कहते हैं- “जब साधक आहार, उपधि, पूजा, ऋद्धि आदि की आकांक्षा से अनुष्ठान, अर्थात् धार्मिक क्रिया करता है, तो वे आकांक्षाएँ शुभ परिणाम या शुभचित्तवृत्ति को शीघ्र ही दूषित करने वाली होने से उन्हें विषानुष्ठान कहते हैं।"100 सभी जीवों की धर्मक्रियाओं की मनोभूमिका एक जैसी कक्षा की नहीं होती है। उनके क्रिया करने का हेतु भी भिन्न-भिन्न होता है। अज्ञानी जीवों की धर्मक्रियाएँ प्रायः जीवन के ऐहिक और भौतिक लाभों के लिए होती है। दस प्रकार की संज्ञाओं, अर्थात् इच्छाओं और आकांक्षाओं से अभिभूत व्यक्ति अपने अनुष्ठानों को दूषित करता है। योगदृष्टिसमुच्चय की टीका में हरिभद्रसूरि ने दस प्रकार की संज्ञाएँ बताई हैं- १. आहारसंज्ञा २. भयसंज्ञा ३. मैथुनसंज्ञा ४. परिग्रहसंज्ञा ५. क्रोधसंज्ञा ६. मानसंज्ञा ७. मायासंज्ञा ८. लोभसंज्ञा ६. ओघसंज्ञा १०. लोकसंज्ञा। इनकी पूर्ति के लिए की जाने वाली धर्मक्रिया विषानुष्ठान है। वर्तमान जीवन के संकट, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि के कारणों से प्रेरित होकर साधक धार्मिक अनुष्ठानों को ४०६ असदनुष्ठानगाथा-१५३, योगबिंदु-आ. हरिभद्रसूरि आहारोपधिपूजर्द्धि-प्रभुत्याशंसया कृतम् । शीघ्रम सच्चित्तहन्तृत्वाद्विषानुष्ठानमुच्यते।।३। सदनुष्ठान अधिकार-अध्यात्मसार- उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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