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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २३१
प्रत्याख्यान ग्रहण किया जाता है। एक बार मकान साफ कर देने के बाद दरवाजा बंद कर देना ठीक है, ताकि वापस धूल का प्रवेश न हो पाए।
त्यागने योग्य वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं, अन्न, वस्त्र आदि वस्तुएँ द्रव्यरूप हैं, अतः इनका त्याग द्रव्यत्याग माना जाता है। अज्ञान, मिथ्यात्व, असंयम तथा कषाय आदि विकार भावरूप हैं, अतः इनका त्याग भावत्याग माना गया है। द्रव्यत्याग की वास्तविक आधारभूमि भावत्याग ही है, इसलिए द्रव्यत्याग भी तभी सार्थक होता है, जब वह कषायों को मन्द करने के लिए तथा गुणों की प्राप्ति के लिए किया जाए। लिए गए प्रत्याख्यान को भाव एवं श्रद्धासहित विशुद्ध रूप से पालन करने में ही साधक की महत्ता है। प्रमत्त अवस्था में उचित ऐसी धर्मस्थान पोषक क्रियाएँ अध्यात्म का प्राण हैं। गीता में कहा गया है- “योगः कर्मसु कौशलमा" कहने का तात्पर्य यह है कि सभी आवश्यक क्रियाओं में व्यक्ति को पूरी सजगता रखना चाहिए। सजगता और निपुणता से की गई क्रियाएँ कर्मयोग कहलाती हैं।
शुद्धक्रिया और अशुद्धक्रिया आध्यात्मिक साधना अनादि से मलिन आत्मा को उज्ज्वल बनाने के लिए है। धर्मसाधना को साधने के लिए महापुरुषों ने दान, शील, तप, भावादि अनेक प्रकार की क्रियाएँ बताई हैं। विविध प्रकार की इन धर्मक्रियाओं को अनुष्ठान भी कहते हैं। प्रत्येक अनुष्ठान स्वयं अपने- आप में शुद्ध ही होता है। अनुष्ठान करने वाले साधकों की कक्षा भी एक जैसी नहीं होती है। अनुष्ठान करने के पीछे सभी का आशय एक जैसा नहीं होता है। अध्यवसाय भी सभी के भिन्न-भिन्न होते हैं। इस प्रकार अनुष्ठानों के और उनकी आराधना के अनेक भेद हो सकते हैं। उ. यशोविजयजी ने साधकों के अध्यवसाय के आधार पर मुख्य पाँच प्रकार के अनुष्ठान बताए हैं।४०५
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श्रमणसूत्र-उ. अमरमुनि - पृ. १०४ विषं गरोऽननुष्ठान तःतुरमृतं परम्। गुरुसेवाद्यनुष्ठानमिति पंचविधं जगुः ।।२।। -सद्नुष्ठान अधिकार-अध्यात्मसार-उ. यशोविजयजी
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