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२३० / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
अमुक समय तक अपने शरीर के प्रति ममत्व का त्याग करके जिनमुद्रा में खड़ा हो जाना कायोत्सर्ग है। आवश्यकसूत्र के तस्सउत्तरीसूत्र में यही कहा गया है - " संयमजीवन को विशेष रूप से परिष्कृत करने के लिए, प्रायश्चित्त करने के लिए, आत्मा को विशुद्ध करने के लिए, आत्मा को शल्यरहित बनाने के लिए, पाप कर्मों के निर्घात के लिए ‘कायोत्सर्ग' किया जाता है । ४०१ कायोत्सर्ग अन्तर्मुख होने की साधना है। 'कायोत्सर्ग' का उद्देश्य शरीर पर की मोहमाया को कम करना है।
कायोत्सर्ग में सब दुःखों और क्लेशों की जड़ 'ममता' का शरीर से संबंध तोड़ने के लिए साधक को यह दृढ़ संकल्प कर लेना चाहिए कि 'शरीर' अन्य है और आत्मा अन्या
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आज देश के प्रत्येक स्त्री-पुरुष को कायोत्सर्ग संबंधी शिक्षा लेने की आवश्यकता है। शरीर और आत्मा को अलग - अलग समझने की कला ही राष्ट्र मे कर्त्तव्य की चेतना जगा सकती है। जड़ और चेतन का भेद समझे बिना सारी साधना मृत साधना है। जीवन के 'प्रत्येक कदम पर कायोत्सर्ग का स्वर गूंजते रहने में ही आज के धर्म, समाज और राष्ट्र का कल्याण है। कायोत्सर्ग की भावना के बिना समाज पर महान् उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आगे आने तथा तुच्छ स्वार्थी को बलिदान करने का विचार तक नही आ सकता है। इस जीवन में शरीर का मोह बहुत बड़ा बन्धन है। यह बन्धन प्राणी को कर्त्तव्य साधना से पराङ्मुख करता है। कायोत्सर्ग द्वारा शरीर और आत्मा का भेद समझकर आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति प्राप्त कर सकते हैं।
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प्रत्याख्यान आवश्यक :
प्रत्याख्यान का अर्थ है- 'त्याग करना । ' प्रत्याख्यान में दो शब्द हैंप्रति+आख्यान। “अविरति और असंयम के प्रति मर्यादायुक्त प्रतिज्ञा करना प्रत्याख्यान कहलाता है । " प्रतिक्रमण एक कायोत्सर्ग के द्वारा आत्मशुद्धि हो जाने के बाद पुनः आसक्ति के द्वारा पापकर्म का प्रवेश नहीं हो, इसलिए
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तस्सउत्तरीकरणेणं, पायच्छित्तकरणेण, विसोहीकरणेणं, बिसल्लीकरणेणं, पावाणं कम्माणं निग्धायणट्ठाए ठामि काउस्सग्गं ।
अन्नं, इमं शरीरं अन्नो जीवति कयबुद्धि ।
दुक्खपरिकिलोसकरं छिंद ममत्तं सरीराओ - १५५२ - आवश्यकनिर्युक्ति- आ. भद्रबाहु अविरतिस्वरूपप्रभृति प्रतिकूलतया आमर्यादया आकारकरणस्वरूपया आख्यानं • कथनं प्रत्याख्यानम् । - प्रवचनसारोद्धारवृत्ति
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