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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ २२६ विशेषकाल की अपेक्षा से प्रतिक्रमण के पाँच भेद भी माने गए हैं- १. दैवसिक- प्रतिदिन सायंकाल के समय दिनभर के पापों की आलोचना करना। २. रात्रिक- प्रतिदिन प्रातः काल में रात्रि के पापों की आलोचना करना। ३. पाक्षिकमहीने में दो बार चतुर्दशी को पन्द्रह दिनों के पापों की आलोचना करना। ४. चातुर्मासिक- चार-चार माह के बाद कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी, फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी, आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी को चार माह के पापों की आलोचना करना। ५. सांवत्सरिक - भाद्र शुक्ल चतुर्थी या पंचमी के दिन वर्ष भर के पापों की आलोचना करना। उ. यशोविजयजी द्वारा ज्ञानसार में प्रतिपादित स्थान, वर्ण, अर्थ, आलंबन और अनालंबन- इन पाँच प्रकार के योगों की साधना प्रतिक्रमण में विशिष्ट रूप से होती है। ४०० स्थान - कायोत्सर्ग आदि आसन विशेष प्रतिक्रमण में होते हैं। वर्ण - सूत्र उच्चारण करते समय ध्वनि का प्रयोग। अर्थ - उन अक्षरों में रहते हुए अर्थ का विशेष निर्णय। आलंबन - बाह्य प्रतिमा या अक्षस्थापना आदि विषयक ध्यान। अनालंबन - बाह्य रूपी द्रव्य के आलंबनरहित सिद्धस्वरूप के साथ तन्मयता, केवल निर्विकल्प चिन्मय समाधि। इनमें स्थान और वर्ण- ये दो क्रियायोग हैं, शेष तीन ज्ञानयोग हैं। पापक्षेत्र से वापस आत्मशुद्धि के क्षेत्र में लौट आने की क्रिया प्रतिक्रमण कहलाती है। अपने दोषों को देखने वाला सुधरता है। स्वदोषदर्शन अन्तर्विवेक जाग्रत करता है, फलतः दोषों को दूर कर सद्गुणों की ओर अग्रसर होने के लिए प्रतिक्रमण प्रेरणा प्रदान करता है। (५) कायोत्सर्ग आवश्यक : यह आवश्यक भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। कायोत्सर्ग दो शब्दों के योग से बना है- 'काय' और 'उत्सर्ग'। दोनों का मिलकर अर्थ होता है- काया का त्याग। ४००. मोक्षेण योजनाद्योगः सर्वोडप्याचार इष्यते। विशिष्य स्थानवर्णाधालम्बनैकाग्रयगोचरः।।१।। योग-२७-ज्ञानसार- उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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