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________________ २२८/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री "क्षायोपशमिकभाव से औदायिक भाव में परिणत हुआ साधक पुनः औदायिकभाव से क्षायोपशमिकभाव में लौट आता है, तो उसका भी लौटना प्रतिक्रमण कहलाता है।"३६६ भद्रबाहुस्वामी ने आवश्यकनियुक्ति में साधक के लिए चार विषयों का प्रतिक्रमण बताया है अकर्त्तव्य को करने पर कर्तव्य को नहीं करने पर तत्त्वों में संदेह करने पर ४. आगमविरुद्ध विचारों का प्रतिपादन करने पर। प्रत्येक साधक को मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और अप्रशस्तयोग- इन चार दोषों का प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। २६७ जैन साधु के द्वारा शौच, पेशाब, प्रतिलेखना इत्यादि कोई भी क्रिया की जाए, तो उसके बाद उसे प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। प्रमाद के निवारण के लिए भी प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। जैनशासन में प्रतिक्रमण द्वारा आत्मशुद्धि के लिए जो मुख्य शब्द बोला जाता है, वह है- 'मिच्छामि दुक्कडं' (मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो)। आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में काल के भेद से प्रतिक्रमण तीन प्रकार का बताया है १. भूतकाल में लगे हुए दोषों की आलोचना करना। २. वर्तमान काल में लगने वाले दोषों से संवर द्वारा बचना। ३. प्रत्याख्यान द्वारा भावी दोषों को अवरुद्ध करना।२६८ भगवतीसूत्र में भी काल की अपेक्षा से तीन प्रकार के प्रतिक्रमण की चर्चा की गई है।३६६ ३६६. ३६७ आवश्यकसूत्र की टीका में उद्धृत प्राचीन श्लोक -आ. हेमचन्द्र भिच्छत्त पड़िवक्कमणं, तहेव असंजमेय पडिक्कमणं कसायाण पडिक्कमणं जोगाण य अप्पसत्थाणं -१२५० -आवश्यकनियुक्ति मिच्छताइ ण गच्छइ, ण य गच्छावेइ णाणुजोणेई जं भण-वय-काएहिं, तं भणियं भावडिक्कमणं ।। अइयं पडिक्कमेई, पडुप्पन्नं संवरेइ, अणाणयं पच्चक्खाइ -भगवतीसूत्र ३६६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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